सतत एवं व्यापक मूल्यांकन

सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन

सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन –    “मूल्यांकन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो शिक्षा-व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है और अंतिम रूप से शैक्षिक उद्देश्यों से सम्बन्धित है।”  –  भारतीय शिक्षा आयोग मूल्यांकन एक अत्यन्त व्यापक प्रक्रिया है। किसी भी प्रकार की योग्यता, कौशल, उपलब्धि आदि की जानकारी प्राप्त करने के लिए मूलयोग्य प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। इन प्रविधियों को समुचित जानकारी प्रत्येक शिक्षक के लिए नितान्त आवश्यक है।

मूल्यांकन विधियाँ वे साधन हैं जिनके द्वारा अध्यापक अपने विद्यार्थी की प्रगति तथा निर्देशन की प्रभावशीलता के बारे में सूचना प्राप्त करता है।

इसमें गुणात्मक एवं संख्यात्मक तकनीकें तथा व्यक्तिनिष्ठ वस्तुनिष्ठ विधियाँ शामिल हैं। इन विधियों की सहायता से ही विद्यार्थियों का सतत एवं व्यापक मूल्यांकन किया जाता है । आज मूल्यांकन को सम्पूर्ण शिक्षक अधिगम प्रक्रिया का एक अंतरिम भाग बनाने की आवश्यकता है। परम्परागत परीक्षण विधि केवल ज्ञानात्मक पक्ष का ही मूल्यांकन करती है तथा अध्यापक और विद्यार्थियों की कोशिशें भी मुख्य रूप से इसी भाग पर केन्द्रित रहती है।

इसी के परिणामस्वरूप वर्तमान स्कूली कार्यक्रम विद्यार्थी के व्यक्तित्त्व के विस्तृत क्षेत्रों के विकास की अवहेलना करते हैं। यदि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया व्यापक एवं निरन्तर होती है तो मूल्यांकन प्रक्रिया भी व्यापक एवं निरन्तर होनी चाहिए ।

1  . व्यापक मूल्यांकन— विद्यार्थियों की विद्वता एवं गैर-विद्वता पक्षों से सम्बन्धित उद्देश्यों की प्राप्ति को जानने के लिए प्रयोग की गई प्रक्रिया को व्यापक या विस्तृत मूल्यांकन प्रक्रिया कहा जाता है । साधारणतया यह देखा जाता है कि विद्वता सम्बन्धी तत्त्व जैसे एक विषय के तथ्यों, संप्रत्ययों, सिद्धांतों आदि के ज्ञान एवं सूझ-बूझ तथा चिन्तन कौशलों का ही मूल्यांकन किया जाता है और गैर-विद्वता सम्बन्धी तत्त्वों को या तो मूल्यांकन प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाता है या उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। अतः बालक के व्यक्तित्त्व के समरूप विकास का उद्देश्य अपूर्ण रह जाता है।

मूल्यांकन को व्यापक बनाने के लिए इसमें विद्वता तथा गैर-विद्वता सम्बन्धी सभी तत्त्वों को शामिल किया जाना चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में तथा इसके संशोधित रूप 1992 में भी यह इंगित किया गया है कि मूल्यांकन प्रक्रिया में विद्वता तथा गैर-विद्वता क्षेत्र के सभी अधिगम अनुभवों को शामिल किया जाना चाहिए।

2  . सतत् या निरंतर मूल्यांकन – शिक्षा के रूप में हमारी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर लिया गया है। उद्देश्यों की प्राप्ति की प्रगति को समय-समय पर जाँच जाना चाहिए। मूल्यांकन किया जाना चाहिए, नहीं तो हमें यह ज्ञात नहीं होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं ?

परम्परागत परीक्षण केवल एक निश्चित समय पर ही ज्ञान एवं कौशलों की उपलब्धि की जाँच करता है, परन्तु मूल्यांकन का नवीन संप्रत्यय माँग करता है कि विद्यार्थियों की उपलब्धियों एवं व्यवहार परिवर्तनों का मूल्यांकन किसी निश्चित समय पर नहीं अपितु निरंतर होना चाहिए। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रत्येक क्रिया जैसे – अधिगम अनुभवों का चयन व नियोजन, शिक्षण विधियों व तकनीकों में परिवर्तन, अध्यापक का व्यवहार, शिक्षण अधिगम के लिए प्रदान किया गया वातावरण, शिक्षण साधन व उपकरणों का प्रयोग आदि सभी सतत् मूल्यांकन से प्रभावित होती हैं ।

शिक्षा की राष्ट्रीय नीति दस्तावेज (1986) में भी इस बात पर बल दिया गया है कि विद्यालय स्तर पर मूल्यांकन रचनात्मक अथवा विकासशील होना चाहिए, क्योंकि, इस स्तर पर विद्यार्थी अधिगम की विकासात्मक अवस्था में होता है। इस समय विद्यार्थी स्वयं विकास की रचनात्मक अवस्था में होता है, इसलिए अधिगम के सुधार पक्ष पर बल दिया जाना चाहिए ।

यदि अध्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अधिगम अनुभवों में सुधार के लिए अपनी शिक्षण विधियों में वांछनीय परिवर्तन करे तो इसके लिए निरन्तर मूल्यांकन अनिवार्य होगा। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के संदर्भ में विद्यार्थी की प्रगति का निर्धारण करने की दृष्टि से उनकी अनुक्रियाओं का रिकार्ड रखना महत्त्वपूर्ण व उपयोगी होगा ।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा के संशोधित प्रारूप, 2005 में भी यह लिखा गया है। कि निरंतर और विस्तृत मूल्यांकन ही एकमात्र सार्थक मूल्यांकन पद्धति है। ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि किस प्रकार इसका प्रभावी ढंग से प्रयोग किया जाए ।

व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के उद्देश्य – व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के अन्तर्गत शैक्षिक तथा गैर-शैक्षिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है। यदि विद्यार्थी कमजोर है तो नैदानिक मूल्यांकन और उपचारी प्रयत्न किए जाने चाहिए । व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य या प्रकार्य निम्नलिखित हैं :

(i) विद्यार्थी की व्यक्तिगत योजनाओं को प्रोत्साहित करना।

(ii) विद्यार्थी की प्रगति की सीमा और स्तर का निर्धारण करना ।

 (iii) प्रत्येक विद्यार्थी की शक्ति, कमजोरियों तथा उसकी आवश्यकताओं का पता लगाना ।

(iv) प्रभावी शिक्षा कार्यनीति तैयार करना ।

(v) विद्यार्थियों की अपनी क्षमताओं व योग्यताओं की पहचान करने में सहायता करना।

 (vi) विद्यार्थियों की पारिवारिक तथा समायोजन संबंधी समस्याओं की जानकारी प्राप्त करना ।

(vii) विद्यार्थी, शिक्षक तथा अभिभावकों को समय-समय पर उपलब्धि के प्रति जागरूक  बनाना ।

(viii) विद्यार्थियों को अपनी गलतियों को सुधारने तथा अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत करना ।

(ix) विद्यार्थियों की अभिरुचि का पता लगाना ।

(x) भविष्य के लिए अध्ययन क्षेत्रों, पाठ्यक्रमों आदि के संबंध में निर्णय लेने में सहायता  करना ।

(xi) शैक्षिक व गैर-शैक्षिक क्षेत्रों में विद्यार्थी की प्रगति संबंधी रिपोर्ट उपलब्ध  कराना ।

व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के क्षेत्र :

(i) बालक की शैक्षिक उपलब्धि ।

(ii) व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुण जैसे- नियमितता, उत्तरदायित्व, सहयोग, समाज-सेवा की भावना आदि ।

(iii) वांछनीय अभिवृत्तियाँ जैसे- समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, अध्यापक, स्कूल, अध्ययन, राष्ट्रीय एकता आदि के प्रति दृष्टिकोण |

(iv) रुचियाँ जैसे-सांस्कृतिक, कलात्मक, वैज्ञानिक, साहित्यिक इत्यादि ।

(v) पाठ्य सहगामी क्रियाओं में कुशलता जैसे- खेल, स्काऊट-गाइडिंग, प्राथमिक चिकित्सा, रेड क्रास आदि ।

(vi) स्वास्थ्य स्तर जैसे- कद, बीमारियों से मुक्ति आदि ।

व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन के तत्त्व / तकनीक – व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन के लिए विभिन्न विधियों व तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है जैसे-

(i) प्रश्नोत्तरी

(ii) दत्त कार्य

(iii) लिखित व मौखिक परीक्षण

(iv) क्षेत्र/ प्रयोगशाला / प्रोजेक्ट कार्य

(v) टर्म पेपर

(vi) उपस्थिति

व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन की उपयोगिता / लाभ-

(i) यह पुस्तकालय में अध्ययन की आदतों का विकास करता है ।

(ii) इससे बालक में आत्मविश्वास की वृद्धि होती है ।

(iii) यह आपसी विचार-विमर्श के अवसर प्रदान करता है ।

(iv) इसके आधार पर विद्यार्थी की भविष्य में सफलता की भविष्यवाणी की जा सकती है।

(v) यह पहले से ही/प्रकरण की तैयारी को आदत का विकास करने में भी सहायता  करता है।

(vi) इसके अन्तर्गत अपनाई जाने वाली तकनीकें जैसे— सेमिनार, सामूहिक विचार-विमर्श आदि विद्यार्थी एवं अध्यापक तथा विद्यार्थी एवं विद्यार्थी के बीच अन्तःक्रिया को प्रोत्साहित करती है ।

(vii) यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं प्रोजेक्ट के द्वारा निर्माणात्मक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया होता है ।

(viii) उपचारात्मक कार्यक्रम एवं प्रोजेक्ट के द्वारा निर्माणात्मक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सुदृढ़ आधार प्रदान किया जा सकता है।

(ix) इसमें बालक के ज्ञानात्मक तथा अन्य भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों को भी शामिल किया जाता है ।

(x) इससे व्यक्तिनिष्ठता में कमी आती है ।

(xi) यह समय-समय पर बालक तथा अध्यापक दोनों को प्रतिपुष्टि प्रदान करता है।

 (xii) यह नियमित रूप से विद्यार्थियों की कमजोरियों एवं शक्तियों के बारे में उपयोगी आँकड़े प्रदान करता है ।

(xiii) यह विद्यार्थी तथा अध्यापक दोनों को ही अपने प्रयत्नों में उपयुक्त परिवर्तन के अवसर प्रदान करता है ।

(xiv) यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सुधार लाता है।

(xv) यह बालकों की व्यक्तिगत योग्यताओं को प्रोत्साहन देता है ।

व्यापक तथा सतत् मूल्यांकन की हानियाँ एवं सीमाएँ :

(i) यह मूल्यांकन तभी संभव है जब अध्यापक एवं विद्यार्थी के बीच मधुर सम्बन्ध हों ।

(ii) कभी-कभी अध्यापक इसका गलत प्रयोग करते हैं और समय-समय पर विद्यार्थियों को चेतावनी देते रहते हैं जिससे उनमें असुरक्षा की भावना आने का भय बना रहता है।

(iii) अध्यापक को ऐसे मूल्यांकन के लिए प्रत्येक विद्यार्थी की भूमिका को जानना आवश्यक होता है।

(iv) अध्यापक का पक्षपात इसे वस्तुनिष्ठ की अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ बना देता है।

(v) यह बड़ी संख्या वाले कक्षा-कक्ष में संभव नहीं होता है।

(vi) इसमें समय तथा शक्ति का प्रयोग अधिक होता है ।

ऊपर वर्णित हानियों तथा सीमाओं के बावजूद भी यह मूल्यांकन अत्यल महत्त्वपूर्ण है। इसकी उपयोगिता को बढ़ाना अध्यापक पर निर्भर करता है। यह न केवल विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि की जाँच ही करता है अपितु उनमें सुधार लाने का प्रयत्न भी करता है ।

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