भारतीय जीवन में वैदिक शिक्षा के अर्थ
वेद हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ हैं। हमारे देश की शिक्षा धर्म पर ही आधारित है। प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्भव वेदों से ही माना जाता है। परन्तु, आदिकाल में वेदों का ज्ञान लिपिबद्ध नहीं था। काफी समय पश्चात् ऋषियों ने इसे लिपिबद्ध किया । वेद को भारतीय जीवनदर्शन का स्रोत माना जाता है, जिसके समय ऋषि-परम्परा, वन्देमातरम्, वसुधैव कुटुम्बकम्, इतिहास दर्शन, शिक्षा तथा पर्यावरण आदि के समस्त रूप सम्मिलित हैं।
वर्तमान व्यवहार में यज्ञवेद को वेद तथा पुराण वेद को केवल पुराण कहा जाता है। वेदों की ऋचाओं का यज्ञ में उच्चारण करना पड़ता है। इसलिए, प्रारंभ में वह जैसा था, आज भी वैसा ही है। परंतु, पुराण वेद केवल समझने वाली विद्या है। इसके अर्थ की रक्षा की गई है। पुराण वेद से हमें सृष्टि के बनने का ज्ञान मिलता है।
इनमें जड़-चेतन व जितने भी प्राणी हैं, उनकी उत्पत्ति का क्या क्रम है ? उसके विषय में ज्ञातव्य बातें कौन-कौन हैं ? अन्त में, यह सृष्टि कहाँ लीन होती हैं और इस उत्पत्ति तथा लीन के बीच कितना समय लगता है ? आदि बातों का वर्णन है । प्रकृति के कार्य करने के ढंग का ज्ञान हमें पुराणों से हो जाता है। साथ ही, यज्ञ वेद के द्वारा हमें यह जानकारी मिलती है कि प्रकृति के क्रम को अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है ?
वेद पृथक्-पृथक् ऋषियों द्वारा रचित मंत्रों और यज्ञ की विधियों का एक संग्रह था । गाने के रूप में पढ़े वाले मंत्रों को ‘साम’ और गद्य के रूप में पढ़े जाने वाले मंत्रों को यजु कहा जाता था। पद्य, गद्य और गान के रूप में पढ़े जाने के कारण उसे अथर्व का भी नाम दिया गया । इस प्रकार ‘वेद व्यास’ ने वेदों को चार भागों में बाँटा, जो हैं— ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद ।
वेदों में शिक्षा शब्द का प्रयोग विद्या, ज्ञान, बोध और विनय आदि अर्थों में हुआ है। शिक्षा को अन्तर्ज्योति माना जाता था, जिसे प्राप्त करके मनुष्य संसार के सभी बन्धनों से मुक्त होकर, जन्म-मरण से छुटकारा पा जाता था, अर्थात् मोक्ष पा लेता था। इस काल में जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना था। इस प्रकार वैदिक काल में शिक्षा में शिक्षा लौकिक न होकर आध्यात्मिक थी तथा परमबह्म का ज्ञान प्राप्त करने का प्रमुख साधन थी।
इसी काल में केवल पुस्तकीय ज्ञान अर्जित करने को शिक्षा नहीं माना जाता था। शिक्षा को जीविकोपार्जन का साधन भी नहीं माना जाता था। शिक्षा, ज्ञान के प्रकाशपुंज के रूप में स्वीकार की जाती थी, जो मनुष्य के अज्ञानतारूपी अंधकार को मिटाकर सर्वांगीण विकास कर सके। अतएव, शिक्षा हमारी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास करती है, हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाती है तथा हमारा सर्वांगीण विकास करती है।
ऋग्वेद के अनुसार शिक्षा की परिभाषा दी गई है, “शिक्षा वह है जो मनुष्य को आत्म विश्वासी और स्वार्थहीन बनाये।”
इस प्रकार यजुर्वेद के अनुसार शिक्षा की यह परिभाषा दी है, ‘विद्ययामृतमश्नुते’ अर्थात् विद्या से अमरत्व की प्राप्ति होती है।
वर्तमान में वेद के चारों भागों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद) को पृथक्-पृथक् वेदों के रूप में स्वीकार किया जाता है। ऋग्वेद की आदि वेद माना जाता है। इसे सभी भारतीय तथा यूरोपियन भाषाओं एवं मानवता का प्रथम साहित्य होने का गौरव प्राप्त है। ऋग्वेद में विभिन्न ऋषियों रचित स्रोत का संकलन है।इसमें प्राचीन काल के मानव का सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन तथा सभ्यता का सजीव चित्रण किया गया है। सामवेद एक गायन पुस्तिका होने के नाते इसमें श्लोकों को सस्वर दोहराना ही इस पुस्तक का प्रमुख लक्ष्य है।
इसी प्रकार, यजुर्वेद को एक प्रार्थना पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें मंत्रों, प्रार्थनाओं तथा यज्ञों की संस्कार विधियों की सजीव वर्णन है। यजुर्वेद का अन्य विषयों के विकास में भी काफी योगदान है। अथर्ववेद को हम भारतीय चिकित्सा के प्रथम मार्ग की संज्ञा भी देते हैं। इसके अतिरिक्त इसमे नक्षत्र विज्ञान, गृह विज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र के सम्बन्ध में भी कुछ स्रोत दिए गए हैं।
वेद शब्द अपने आप में ही इतना व्यापक है कि विश्व का समस्त ज्ञान इसमें समाहित है। बौद्धकाल के प्रारंभ होने से पूर्व वाले सम्पूर्ण कालखण्ड को वैदिक काल की संज्ञा दी जाती है। छः सौ ईसा पूर्व से पहले के समय को वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। इस समय ही वेदों की रचना हुई तथा इसके आधार पर ही शिक्षा की व्यवस्था की गयी | इस अवधि में ब्राह्मणों की प्रधानता रहने के कारण इसे ब्राह्मण काल की भी संज्ञा दी गई है। इस प्रकार वैदिक साहित्य में शिक्षा का प्रयोग विद्या, ज्ञान, प्रबोध एवं विनय आदि के रूप में किया गया ।
‘वैदिक शिक्षा का महत्त्व – वैदिक काल में अशिक्षित व्यक्ति समाज के लिए कलंक समझा जाता था । इसलिए बच्चों के माता-पिता उन्हें शिक्षित करना अपना पुनीत कर्त्तव्य समझते थे । इस काल में शिक्षा को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता था। ज्ञान से ही मनुष्य के अन्तर्चक्षु खुलते हैं, इसलिए ज्ञान को तीसरा नेत्र की संज्ञा दी जाती है।
वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य – वैदिककालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
1 . धार्मिक भावना का विकास – वैदिक काल में धर्म का जीवन में प्रमुख स्थान था । इसलिए बालक में ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना विकसित करना वैदिक शिक्षा का उद्देश्य था । शिक्षा में विभिन्न संस्कारों की व्यवस्था की गयी थी।
विद्यार्थियों को प्रातः पूजा-पाठ, नियमित संध्या, अर्चना, व्रतों की पालन एवं अन्य धार्मिक कृत्यों में सक्रिय भाग लेना आवश्यक था ।
2 . व्यक्तित्त्व का विकास – वैदिक काल में विद्यार्थियों को इस प्रकार शिक्षित किया जाता था, जिससे उनमें आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास की भावना जाग्रत हो सके। साथ ही, उनका शारीरिक तथा मानसिक विकास भी हो सके।
3 . चरित्र निर्माण – वैदिक काल में उत्तम चरित्र को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इसके लिए विद्यार्थियों को नीतिगत उपदेशों, सदाचार तथा महापुरुषों के आदशों का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य था। गुरु का भी आदर्श चरित्र होता था, जिसका प्रभाव छात्रों पर स्वयं ही पड़ता था।
4 . सामाजिक कुशलता की उन्नति – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में कुशलतापूर्वक जीवन-यापन करने के लिए उनमें कुछ कौशलों का विकास करना आवश्यक होता है। इसलिए विद्यार्थियों के उनके वर्ण और रुचि के अनुकूल विभिन्न व्यवसायों और उद्योगों की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी।
5 . सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन – वैदिक काल में विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा दी जाती थी, जिसमें वे जीवन के नागरिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों को समझ सकें और उनका वास्तविक जीवन में अनुपालन कर सकें, जिससे वे समाज एवं राष्ट्र के उत्तरदायित्व का सम्यक् निर्वाह करने में समर्थ हो सकें।
6 . राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार – वैदिक काल में साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक परम्पराओं के संरक्षण के लिए विशेष ध्यान दिया जाता था। इसी कारण, प्रत्येक पिता अपने पुत्र को अपने परम्परागत व्यवसाय में निपुण बनाने को हमेशा प्रयासरत रहता था। इस तरह से ज्ञान का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता रहता था। इस प्रकार वैदिक काल की शिक्षा राष्ट्रीय संस्कृति के संरक्षक एवं प्रसारक के रूप में उपयोगी थी।
वैदिक काल में शिक्षा व्यवस्था – वैदिक काल में शिक्षा व्यवस्था का वर्णन अद्योलिखित रूप में किया गया है—
1 . विद्यारंभ – वैदिक काल में बालक की आयु जब पाँच वर्ष की हो जाती थी तो उनका चौल संस्कार अर्थात् चूड़ा कर्म होता था, जिसे विद्यारंभ संस्कार कहा जाता था। इस संस्कार के उपरान्त बालक की गृह शिक्षा प्रारंभ हो जाती थी। गृह शिक्षा वर्ण क्रमानुसार 8, 11 और 12 वर्ष तक चलती थी। इस प्रकार यह चौल संस्कार सम्पन्न किया जाता था। इस अवधि में माताएँ अपने बच्चें को मंत्रोच्चारण अभ्यास, लेखन-पठन की शिक्षा, प्रारंभिक व्याकरण, गणित तथा किस्से-कहानियाँ सुनकार उन्हें शिक्षा प्रदान करती थीं।
2 . उपनयन संस्कार —उपनयन का अर्थ होता है—पास ले जाना। अतः बालक को शिक्षा के पास ले जाना ही ‘उपनयन संस्कार’ कहा जाता था। इस संस्कार के बाद ही बालक को ब्रह्मचारी कहा जाता था । उपनयन को बालक का दूसरा जन्म माना जाता है। उस काल में यह स्वीकार किया गया था कि माता-पिता बालक को जन्म देते हैं, शिक्षक के यहाँ उपनयन के द्वारा दीक्षित होकर उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों के बालकों के लिए उपनयन संस्कार आवश्यक था।
इसी कारण इन तीनों वर्णों को द्विज कहा जाता था , जिसका अर्थ होता है—दो बार जन्म लेना। विभिन्न वर्णों के बालकों के लिए उपनयन संस्कार की आयु भिन्न थी। ब्राह्मण को 8 वर्ष की आयु में केवल वसन्त ऋतु में उपनयन संस्कार कराया जाता था। वैश्य वर्ण के लोगों के लिए यह संस्कार 12 वर्ष की आयु में शरद् ऋतु में होता था। उपनयन संस्कार का अधिकतम आयु ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के लिए क्रमश 16, 22 व 24 वर्ष थी। इस प्रकार, वैदिक काल में विद्याध्ययन का प्रारंभ एक संस्कार के द्वारा होता था, जिसे उपनयन संस्कार कहा जाता था ।
3 . शिक्षण की अवधि – वैदिक काल में शिक्षण कार्य प्रातः व सायं दोनों समय होता था। महीने में संक्रांति, प्रत्येक पखवारे की अष्टमी, पूर्णिमा तथा अन्य पर्वों की छुट्टियाँ रहती थीं । विद्यार्थी जीवन प्रायः बारह वर्ष तक चलता था । प्रत्येक वेद के अध्ययन के बारह वर्ष की अवधि निश्चित थी, परन्तु कुछ ही विद्यार्थी चारों वेद का अध्ययन करते थे।
4 . स्थान – वैदिक काल में बालक कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर प्रकृति की गोद में शिक्षा ग्रहण करते थे। वर्षा तथा धूप आदि से बचने के लिए स्थायी व अस्थायी प्रबंध होता था। प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होने के कारण विद्यार्थी के शारीरिक व मानसिक विकास पर स्वस्थ प्रभाव पड़ता था ।
5 . शिक्षा संस्थाएँ – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा घर पर होती थी। औपचारिक संस्थाओं के रूप में छोटे-छोटे पारिवारिक विद्यालय होते थे, जिनका संचालन शिक्षक स्वयं व्यक्तिगत रूप से करता था । उपनयन के बाद बालक शिक्षा गुरुकूल में होती थी। उस समय बालक को गुरुकुल में ही रहना पड़ता था। गुरुकुल में शिक्षा के लिए रहने वाले बालकों को ब्रह्मचारी या कुलवासी कहा जाता था। शिक्षक ही अपने बालकों का अभिभावक होता था तथा वही खान-पान, पोशाक व अन्य आवश्यकताओं की व्यवस्था करता था। गुरुकुल का जीवन अत्यंत सरल होता था।
6 . दिनचर्या – छात्र ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शौच, दातून स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत होकर प्रार्थना, वहन आदि कार्य करते थे। इन कार्यों के उपरान्त वे विद्याध्ययन में लीन हो जाते थे। गुरु के आश्रम में प्रवेश लेने के बाद छात्रों को गुरुकुल के कठोर अनुशासन में रहना होता था। भोजन की व्यवस्था के लिए छात्रों को भिक्षा लाना, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गायों को चराना आदि कार्य करने पड़ते थे।
7 .पाठ्यक्रम – चूँकि प्राचीन भारतीय शिक्षा धर्म पर आधारित थी, इसलिए छात्रों को वेदमन्त्र, यज्ञविधि, पुराण, उपनिषद् आदि ग्रन्थों की शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त छात्रों को उच्चारण, व्याकरण, गणित, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कृषि, मूर्तिकला, वास्तुकला, सैनिक शिक्षा, आयुर्वेद तथा शल्य विज्ञान आदि को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता था। शिक्षा का माध्यम संस्कृत होने के कारण प्रत्येक बालक को संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक था ।
8 . शिक्षण विधि – इस काल में शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी। विद्यार्थियों को समस्त ज्ञान कण्ठस्थ करना होता था। इसीलिए प्रायः सभी ज्ञान की रचना पद्य के रूप में की गयी थी। गुरु के पास बैठकर शिष्य उच्च स्वर में पाठ करते थे। शिष्यों के आग्रह पर गुरु दिये हुए ज्ञान की व्याख्या करते थे। वैदिक काल में मुख्य रूप से श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन विधि की चर्चा शिक्षण के रूप में की जाती थी।
9 . परीक्षा प्रणाली – वैदिक काल में औपचारिक (लिखित) परीक्षाएँ नहीं ली जाती थी। गुरु प्रतिदिन नया ज्ञान देने से पूर्व, पहले बताये गये पाठ के बारे में पूछते थे तथा उसकी कमियों को बताकर छात्र की त्रुटियाँ दूर करते थे। गुरु संतुष्ट होने के बाद ही आगे का पाठ पढ़ाते थे। विद्वानों को सभी छात्रों को अपना ज्ञान को प्रमाणित करना पड़ता था। जब गुरु वह समझ जाते थे कि छात्र ने आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, तब उस छात्र का अध्ययन समाप्त समझा जाता था ।
10 . वित्तीय व्यवस्था – वैदिक काल में सामान्य जनता, धनी व समृद्ध व्यक्ति, राजा, व्यापारी आदि आश्रमों को धन, पशु, भूमि, अन्न आदि दान में देते थे । छात्र भिक्षा माँगकार लाते थे । पशुपालन व कृषि से कुछ आय हो जाती थी। इस प्रकार गुरु द्वारा उपार्जित धन छात्रों द्वारा लायी गयी भिक्षा, गुरु-दक्षिणा, दान में मिले पशुओं व भूमि से प्राप्त आय, दान, उपहार तथा राजकीय सहायता शिक्षा के लिए मुख्य वित्तीय व्यवस्था थी । गुरु अपने त्याग, निःस्वार्थ सेवा, साधारण जीवन तथा उच्च विचारों के द्वारा सभी आवश्यकताओं अर्थात् भोजन, वस्त्र व आवास को उपलब्ध कराना अपना परम कर्त्तव्य समझता था ।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना था। जीवन में तीन ऋणों— गुरु ऋण, देव ऋण व पितृ ऋण से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ वसन्तानोत्पत्ति के द्वारा उऋण (उधार) होने का प्रयास किया जाता था ।
11 . समापवर्तन उपदेश – छात्रों की शिक्षा पूर्ण होने के उपारान्त गुरु अपने विद्यार्थियों को अंतिम उपदेश देते थे जिनमें सदा सत्य बोलने, अपने कर्तव्य का पालन करने, वेद अध्ययन करने, स्वास्थ्य रक्षा करने, यज्ञ करने, माता-पिता व गुरु की सेवा करने तथा दान देने आदि उत्तम कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे। गुरु द्वारा दिये गये उपदेश को छात्र तन्मयता से पालन करते थे, जिससे उनका जीवन सफल सार्थक व सुखद हो जाता था।
वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएँ – उपरोक्त वर्णन के पश्चात् वैदिक कालीन शिक्षा को अद्योलिखत विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं—
- वैदिक कालीन शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न होकर छात्रों में व्यावहारिक ज्ञान भरकर उन्हें पूर्ण जीवन के लिए तैयार करती थी।
- वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था सार्वजनिक तथा निःशुल्क थी ।
- वैदिक काल में छात्र कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर गुरुकूल या आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे।
- वैदिक काल में छात्र को अपने तथा गुरु परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था हेतु भिक्षाटन करना पड़ता था ।
- वैदिक काल में गुरुकुल में छात्रों की दिनचर्या नियमित थी। सुबह शाम अध्ययन करना तथा दिन में भिक्षा माँगना, गाय चराना, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना आदि कार्य करने पड़ते थे ।
- वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त थी। राजा महराजा गुरुकुलों की हर प्रकार से सहायता करते थे। परन्तु, इसके नियम-कानून में कोई दखल नहीं देते थे ।
- वैदिक काल में गुरु और शिष्य के मध्य बहुत ही पवित्र तथा मधुर सम्बन्ध था। शिष्य अन्त:वासी बनकर शिक्षा प्राप्त करता था।
वैदिक कालीन शिक्षा का वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली में योगदान – वर्तमान शिक्षा प्रणाली, वैदिक शिक्षा प्रणाली से भिन्न दिखायी पड़ती है। परन्तु वैदिक शिक्षा के आदर्शों को अनुसरण करके वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था की जा सकती है। पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के चपेट में आकर हम अपने पुरातन नैतिक आदर्शों से दूर हटते जा रहे हैं। अनुशासनहीनता, वर्ग संघर्ष, छात्र- असंतोष, बेरोजगारी, निर्धनता, सामाजिक बुराइयाँ आद दिन-प्रतिदिन अपना विकराल रूप धारण करती जा रही है।
वैदिक शिक्षा प्रणाली के आदर्श तत्त्वों को वर्तमान शिक्षा में समावेश करके ही हम इन समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं। इस प्रकार, वैदिक काल की शिक्षा की अनेक विशेषताएँ वर्तमान समय में प्रासांगिक हैं। वैदिक शिक्षा के आदर्शों— श्रद्धा-भक्ति, सेवा, आदर, आत्मानुशासन, सादा जीवन, उच्च विचार, ब्रह्मचर्य, नैतिकता आदि का समावेश वर्तमान शिक्षा में करना ही लाभप्रद हो सकता है।
वर्तमान की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ पहले से अलग हैं। आधुनिक नवोदित समाज लोकतांत्रिक ढाँचे में चल रहा है। अतः इन्हीं दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर प्राचीन भारतीय शिक्षा की निम्नलिखित विशेषताओं को वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति में सम्मिलित किया जा सकता
- मानव का आधुनिक जीवन पूर्णतया भौतिकवादी हो गयी है | अतः शिक्षा का उद्देश्य भौतिक समृद्धि को प्राप्त करना है, जिसके फलस्वरूप विद्यालय में अनुशासनहीनता, तनाव, कलह तथा अशान्त वातावरण पैदा हो गया है। आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा से ही यह बात हो रही है। प्राचीन शिक्षा के आध्यात्मिक पक्ष को अगर आज की शिक्षा के लिए स्वीकार किया जाए तो समाज में शान्ति कायम हो सकती है।
- वर्त्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यार्थियों में चरित्र गठन पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है । इसलिए उच्च शिक्षा पाए लोग भी अक्सर चरित्रहीन हो जाते हैं और भ्रष्टाचार में लगे रहते हैं । प्राचीन भारत की शिक्षा से प्रकाश लेकर अपने विद्यालयों में हम विद्यार्थियों के चरित्र गठन पर अधिक ध्यान दे सकते हैं।
- वर्तमान शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य नजदीकी सम्बन्ध का अभाव पाया जाता है। इससे बालकों का वांछित विकास नहीं हो पाता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति की अनुकरण करके हमें गुरु एवं शिष्य में घनिष्ठ सम्बन्ध कायम करना चाहिए ।
- प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समान विद्यालयों में स्वस्थ्य तथा सबल शारीरिक विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए ।
- पब्लिक विद्यालयों की भाँति आदि अन्य विद्यालय भी वर्तमान सामाजिक वातावरण से दूर रहें और गुरुकुल के समान उनके लिए छात्रावासों की व्यवस्था हो तो बालकों का चरित्र गठन स्वतः हो जाएगा। छात्रवासों में छात्र सामुदायिक जीवन-यापन करते हुए सामाजिक गुणों को सीखेंगे।
- प्राचीन गुरुकुल के समान ही विद्यालय का शान्त एवं सात्विक वातावरण होना चाहिए।
- प्राचीन विद्यालय के समान वर्तमान शिक्षण संस्थाओं को संस्कृति का संरक्षक होना चाहिए ।
- प्राचीन शिक्षा में संतुलित व्यक्तित्त्व के विकास पर बल दिया जाता था जो आज छात्रों के लिए आवश्यक है ।
प्राचीन शिक्षा की उपर्युक्त विशेषताओं को वर्तमान प्रचलित शिक्षा में अपनाया जा सकता है।