सृजनात्मकता क्या होती है

सृजनात्मकता का अर्थ     सृजनात्मकता का अंग्रेजी भाषा का पर्याय Creativity हैं  जिसका  अर्थ होता है ‘By way of creation’ | इसका हिन्दी अर्थ है ‘उत्पादन से। इस प्रकार सुजनात्मक का शाब्दिक पर्याय “उत्पादन से सम्बन्धित हुआ। प्रत्येक व्यक्ति के कियाकलापों का महत्त्वपूर्ण गुण सृजनात्मकता है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता होती हैं |आवश्यकता उसके विकसित करने की  होती है।

 शिक्षाविद् बिनै के अनुसार, एक व्यक्ति लकडी की मनचाही कलात्मक वस्तु का निर्माण कर सकता है, मूर्तिकार व वास्तुविद् भी अपनी-अपनी कलाओं की छाप छोड़ते हैं। यही तो सृजनात्मकता है। इस प्रकार हम कर सकते हैं कि सृजनात्मकता मानव को ईश्वर प्रदत्त एक अद्वितीय वरदान है। यह किसी विशेष गुण की या विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई देन नहीं है।

सृजनशीलता की प्रक्रिया –  सृजनशीलता को समझने के लिए इसकी प्रक्रिया को समझना आवश्यक है।

वालस के अनुसार इनकी निम्न अवस्थाएँ है –

1  तैयारी की अवस्था – सृजनशीलता की इस अवस्था में समस्या पर ध्यान केन्द्रित प्रदत्तों पर व्यवस्थापना, समस्या परिभाषीकरण एवं सार्थक विचारों के द्वारा समस्या के अन्त या हल पर पहुंच जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति में कुछ करने की इच्छा होती है। अत: व्यक्ति इस अवस्था में अध्ययन करता है, सीखता है व तथ्यों को कई प्रकार से सम्बन्धित करता है।

2  परिपक्वता की अवस्था – जब तैयारी की अवस्था में समस्या का हल नहीं निकलता है तो तनाव होता है। व्यक्ति तनाव के दौरान अपनी समस्या से कुछ समय के लिए मुख मोड़ लेता है। यही द्वितीय अवस्था है। वह अपने विचारों का परीक्षण, पुनर्परीक्षण, विचारों का व्यवस्थापन, पुनर्व्यवस्थापन करता है। अन्तर्दृष्टि के आधार, प्रयत्न एवं भूल के आधार पर निर्णय लेता है। इस अवस्था में किस प्रकार की क्रिया दिखाई नहीं देती है। समस्या का समाधान अचेतन रूप में होता है।

3  प्रकाशन की अवस्था –   इस अवस्था में अचानक ही विचारक के मन में समस्या का हल सूझ जाता है। इसे यूरेका की संज्ञा दी जाती है। समस्या के विभिन्न घटकों के बीच सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

4  .दाहराव/सत्यापन की अवस्था  –   इस अवस्था में विचार या समस्या के हल का सत्यापन किया जाता है। सत्यापन में व्यक्ति चिन्तन, मूल्यांकन व समीक्षा करते हैं व पुनः संशोधन भी किया जाता है।

टारेन्स व मायर्स ने निम्न अवस्थाओं का उल्लेख किया है  –

  1. समस्या के प्रति संवेदनशीलता।
  2. प्राप्त सूचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करना।
  3. समस्या के हलों को खोजना ।
  4. परिणामों का सम्प्रेषण करना ।

स्टेन ने सृजनशीलता की प्रक्रिया में निम्न चरणों को लिया ।

1 तैयारी,

2 उपकल्पना निर्माण,

3  उपकल्पना परीक्षण

4  निष्कर्षों को जन-सामान्य तक पहुँचना ।

उपर्युक्त अवस्थाएँ स्थिर नहीं है। भिन्न-भिन्न सृजनशील व्यक्ति भिन भिन्न अवस्थाओ  से होकर गुजरते हैं  –

(1) सृजनात्मकता में उच्च बौद्धिक क्षमता होती है।

 (i) सृजनात्मकता में नवीनता तथा मौलिकता विद्यमान होती है।

 () सजनात्मकता के द्वारा किया गया कार्य  समाज द्वारा मान्य होता हैं |

 (iv) सृजनात्मकता के कई क्षेत्र तथा आयाम होते है।

(५) सृजनात्मकता के द्वारा समस्या की उपस्थिति का बोध होता है।

(vi) सृजनात्मकता में नम्यता होती है।

 (vii) सृजनात्मकता में सोचने-विचारने के क्रम में केन्द्रीयकरण के स्थान पर विविधता एवं प्रगतिशीलता पाई जाती है। (iii) सजनात्मकता के अन्तर्गत बालक में चिन्तन, कल्पना, तर्क तथा अन्य क्रियायाँकरने की शक्ति होती है जिसे परीक्षणों द्वारा मापा जा सकता है।

सृजनशील बालक की पहचान  –   सृजनशील बालक विद्यमान, समाज एवं राष्ट्र की धरोहर होते हैं। अत: ऐसे बालकों की प्रतिभा की खोज करना समाज हित में रहता है। ऐसे बालकों की पहचान हम टारेन्स द्वारा प्रस्तावित निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर का सकते हैं  –

(i) वह बालक कक्षा की गतिविधियों की पूरी जानकारी रखते हुए भी बाह्य दुनिय की जानकारी रखने का प्रयास करने वाला होगा।

(ii) उस बालक को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह समय नष्ट कर रहा है, दिवास्वप्न देख रहा है। लेकिन, वह ध्यानमग्न रहता हो।

 (iii) वह बालक कक्ष की पढ़ाई के मध्य भी अपनी अभ्यास-पुस्तिका में रेखाचित्र बनात रहता हो।

(iv) वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करते हुए निरीक्षण करता हो।

 (v) वह बालक सौंपे गए निर्धारित कार्यों से परे चला जाता हो।

(vi) वह चित्रों की व्याख्या विस्तारपर्दूक करता हो।

(vii) वह बिना उत्तेजित हुए अपने समय का उपयोग कर सकता है।

 (viii) वह दूसरों से भिन्न तरीकों से पोशाक पहनना पसन्द करता है।

 (ix) वह क्यों और कैसे, इन प्रश्नों से परे जाकर खो जाता है।

 (x) खेल खेलते समय संलग्न निर्देशों से आगे चला जाता है।

 (xi) वह साधारण चीजों से अपने आपको प्रसन्न रख सकता है।

(xii) वह अपने कार्यों और खोजों को दूसरे को बताने का प्रयास करता

(xii) वह नवीनता लाने की चेष्टा को दूसरों को बताने का प्रयास करता

 (xiv) मानव निर्देशों से अलग हटकर कार्यों का सम्प्रदान करता है।

 (xv) यह वह निम्न प्रतीत होता है तो भी परिणामों की परवाह नहीं करता है।

 बुद्धि  एवं सृजनात्मकता में अन्तर –   बुद्धि एवं सृजनात्मकता में अन्तर निम्न प्रकार है

 1   बुद्धि वंश-परम्परा से प्राप्त तथा जन्मजात होती है जबकि सूजनात्मकता का विकास वातावरण पर निर्भर करता है।

2   बुद्धि अत्यधिक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जबकि सृजनात्मकता चिंतन की प्रक्रिया हैं |

3    सृजनात्मकता में अर्जित कौशलों का प्रयोग किया जाता है, जबकि बुद्धि उन कौशलों की समस्याओं को हल करने में सहायता देती है।

4   बुद्धि का क्षेत्र अति विस्तृत एवं व्यापक होता है जबकि सृजनात्मकता का क्षेत्र सीमित होता है।

   5   बुद्धि और सृजनात्मकता का विशेष सम्बन्ध नहीं होता है। बुद्धिमान बालक में सृजनात्मकता हो, यह आवश्यक नहीं   है। ठीक इसके विपरीत सृजनात्मक बालक सदैव बुद्धिमान ही नहीं होते हैं।

 सृजनशीलता का पोषण  –  एक सृजनशील बालक का पोषण निम्नलिखित बिन्दुओं। घियों के आधार पर किया जा सकता है।

  • प्रार्नस तथा मीडो ने सृजनात्मक चिन्तन में प्रात्यक्षिक, सांवेगित तथा सांस्कृतिक अवरोधों का विश्लेषण किया है। निरीक्षण का कम क्षमता, अ-नमनीय दृष्टिकोण, समस्या के विभिन्न पहलुओं को परिभाषित न कर पाना ।
  • कक्षा का वातावरण अधिकार तथा दवाव से मुक्त तथा प्रजातांत्रिक होना चाहिए।
  • अध्यापक किसी भी समस्या, भाषा, साहित्य या सिद्धान्त को रूपरेखा देकर विस्तारण की क्षमता विकसित कर सकता है।
  • अध्यापकों को बालकों की असामान्य प्रतिबोधात्मक क्षमता एवं जिज्ञासा की प्रशंसा करनी चाहिए।
  • असफलता व भग्नाशा की स्थिति में सहायता करनी चाहिए । अवरोधों को दूर करना चाहिए।
  • विद्यार्थियों को स्व-अधिगम के लिए प्रेरित करना चाहिए।
  • सृजनशील बालक की कल्पनाशीलता को सकारात्मक रूप में देखना चाहिए।
  • सृजनशीलता के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता तथा सभी संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए।
  • दिवा-स्वप्न देखने में बालकों का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए।
  • विद्यार्थियों में आत्मविश्वास का भावना विकसित करें।

   सृजनात्मकता की प्रकृति तथा विशेषताएँ – 

 विभिन्न अध्ययनों के आधार पर सृजनात्मकता की प्रकृति तथा उसकी विशेषताओ का निम्नलिखित रूप से उल्लेख किया जा सकता है  –

 1 सुजनात्म्कता सार्वभौमिक होती है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति में कछ – न – कुछ मात्रा में सृजनात्मकता अवश्य होती है।

2 यद्यपि सृजनात्मक योग्यताएँ प्रकृति-प्रदत्त होती हैं, परंतु प्रशिक्षण या शिक्षा द्वरा उनको विकसित किया जा सकता है।

3 . कोई भी सृजनात्मक-अभिव्यक्ति सृजक के लिए आनंद तथा संतुष्टि का स्रोत होती है। सृजन जो देखता या अनुभव करता है, उसे अपने तरीके से प्रकट करता है। सूजक अपनी रचना द्वारा ही अपने आप के अभिव्यक्ति करता है। सूजक अपने ही तरीके से वस्तुओं, व्यक्तिों तथा घटनाओं को देखता है। अत: यह आवश्यक नहीं कि रचना प्रत्येक व्यक्ति को वही ‘अनुभव’ एवं वही संतोष’ प्रदान करे जो रचनाकार को प्राप्त  हुआ हो।

4 . ‘सृजक’ वह व्यक्ति है जो अपने ‘अहं’ को इस प्रकार प्रकट कर सकता हो, “यह मेरी रचना है”, “यह मेरा विचार है”, “मैंने इस समस्या को हल किया है।” अत: निर्माणात्मक क्रिया में अहं’ अवश्य निहित रहता है।

 5 . सृजनात्मक चिंतन ‘बंधा हुआ चिंतन नहीं होता। इसमें अनगिनत विकल्पों तथा इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने को पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। पिटे-पिटाए मार्ग पर चलने से  पुनरावृत्ति तो हो सकती है, नया निर्माण नहीं।

सजनात्मक चिन्तन की अवधारणा  –  चिन्तन प्रक्रिया या चिन्तन शक्ति के कारण  मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है । चिन्तन में मानव अन्य प्राणियों की अपेक्षा कि जटिल संज्ञानात्मक प्रक्रिया करता है। इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन एक संज्ञानात्मक क्रिया है। विश्व की प्रगति में मानव के सृजनात्मक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण योगदान है क्योंकि संजनात्मक चिन्तन का उद्देश्य नवीनता का सृजन होता है । सृजनात्मक चिन्तन में नए सम्बन्धों व साहचर्यों का वर्णन करते हुए वस्तुओं, घटनाओं एवं परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है। यह पूर्व स्थापित नियमों से प्रतिबन्धित नहीं होता है। व्यक्ति प्रायः समस्याओं का निर्माण कर उससे सम्बन्धित प्रमाण जुटा कर समस्याओं का हल सुझाते हैं।

  इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन एक ऐसी मानिसक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति किसी नई परिस्थिति का समान करने या किसी समस्या का समाधान करने में अपने पूर्व अनुभवों का प्रयोग करता है। चिन्तन की प्रक्रिया में संवदेना, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय निर्माण, पूर्व अधिगम, स्मृति आदि का समावेश होता है। सृजनात्मक चिन्तन को समस्या समाधान की ओर उन्मुख होने वाली व्यक्ति अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान करता है । चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया होने के कारण इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकती है फिर भी कुछ मनोवैज्ञानिकों के इसके बारे में निम्नलिखित विचार हैं

वेलेन्टाइन के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन शब्द का प्रयोग उन क्रिया के लिए किया जाता है जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य अथवा उद्देश्य की ओर प्रवाहित होते है।”

रॉस के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन ज्ञानात्मक पक्ष की मानसिक क्रिया है।”

इन विचारों के अनुसार सुजनात्मक चिन्तन वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी समस्याओं का समाधान करता है। जब तब व्यक्ति की समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक वह चिन्तन करता रहता है।

एक शिक्षक द्वारा छात्रों में सजनात्मक चिन्तन का विकास  –   सृजनात्मक योग्यताएँ मानव जाति को अन्य प्राणियों में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। इसीलिए मानव को बौद्धिक  प्राणी कहा जाता है। बालकों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास एक शिक्षक द्वारा निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –

(i) बालकों की जिन विषयों में अधिक रुचि होती है उन विषयों में वे अधिक ध्यान एव रुचि संकेन्द्रित कर लेते है। अतः सजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु ध्यान एवं रुचि को जागृत किया जाना चाहिए ।

 (ii) सृजनात्मक चिन्तन अभिप्रेरणा के बिना असम्भव होता हैं | अंत: एक शिक्षक द्वरा छात्रों को दी जाने वाली अभिप्रेरणा जितनी सशक्त एवं प्रभावशाली होगी, सजनात्मक चिन्तन को उतना ही बल मिलेगा।

(iii) सजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध बाह्य जगत से भी होता हैं | जितना अधिक बालकों का समाज के सम्पर्क होता है उतना ही चिंतन भी व्यापाकता  एवं गहनता प्राप्त करता है । अतः एक शिक्षक को बालक के लिए सामाजिक सम्पर्क के अवसर जुटाने चाहिए।

 (iv) सुजनात्मक चिन्तन में भिन्नता पाई जाती है। भिन्न-भिन बालकों की सुजनात्म्कता चिन्तन प्रक्रिया उनके उद्देश्यों, परिस्थितियों या समस्याओं  के अनुरूप भिन्न भिन्न हो सकती है। अतः एक शिक्षक को अपने शिक्षण में  वैयक्तिक भिन्नताओं  (Individual differences) का ध्यान रखना चाहिए।

(v ) सूजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया संवेगों से भी प्रभावित होती है क्योंकि चिंतन सवेंग  मुक्त स्थिति में ही बेहतर हो सकता है। संवेगों से तो चिन्तन  की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है। अतः एक शिक्षक को प्रयास करना चाहिए कि सुजनात्मक चिंतन की प्रक्रिया में बालक संबंधों से मुक्त रह सके ।

 (vi) भाषा, प्रतीक व चिह्नों के बिना सृजनात्मक चिन्तन नहीं हो सकता हैं। अतः शिक्षण द्वारा यह प्रयास किया जाना चाहिए कि वह इन आवश्यक साधनों या प्रत्ययों का बालकों में विकास कर सकें।

(vii) शब्दों में प्रत्यय, प्रत्यय से अधिनियम, अधिनियम से सिद्धान्त की कड़ी बनती है। यदि एक भी कड़ी को हटा दिया जाए तो सम्पूर्ण सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया विखण्डित हो जाती है। प्रत्यय निर्माण में निरीक्षण, विश्लेषण, अमूर्तकरण व सामान्यीकरण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ विकसित होती हैं। अत: बालकों को शिक्षक द्वारा प्रत्यय निर्माण में बहुत सहायता करनी चाहिए।

 (viii) सृजनात्मक चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें अनेक सरल मानसिक प्रक्रियाएँ निहित रहती हैं। अतः एक शिक्षक को बालक की सरल मानसिक प्रक्रियाओं को पुष्ट करने में अपना योगदान देना चाहिए ।

Spread the love

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *