वैदिक कालीन शिक्षा -प्रणाली

      वैदिक शिक्षा

(I) ऋग्वेदिकालीन शिक्षा

      शिक्षा के प्रति आर्यों का विशेष लगाव था। प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख विद्वान् डॉ० अल्तेकर ने वैदिक कालीन शिक्षा को भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व दिया है।

      भारत के सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की रचना इसी काल में हुयी थी। इसी काल में प्रत्येक व्यक्ति और स्त्री को वैदिक रीति नीति की शिक्षा दी जाती थी। पुरुष और स्त्री जिस समय तक शिक्षा प्राप्त करते थे तो वह काल ‘ब्रह्मचर्य’ कहा जाता था। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में आर्यों का विचार था कि, “इस (ब्रह्मचर्य) से परमात्मा भी नहीं बच सकता है।” शिक्षा के सम्बन्ध में आर्यों का विचार था कि, “पर्याप्त शिक्षा के अभाव में कोई भी महान् व्यक्ति कुशल शासक या योग्य कारीगर नहीं बन सकता।” आर्यों ने स्त्री शिक्षा पर भी विशेष बल दिया था।

(1) प्राचीन स्त्री शिक्षा – इस युग में स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था। शिक्षा के समय पुरुष के समान कन्या का भी उपनयन संस्कार होता था । स्त्री ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये अध्ययन करती थी। इस काल में अनेकों ऐसी महिलायें हुयीं, जिन्होंने ऋषियों की भाँति वैदिक मन्त्रों की भी रचना की थी। इन स्त्रियों में घोष, ओपामुद्रा, अपाला, विश्ववारी, निवावरी आदि स्त्रियाँ प्रमुख थीं। धार्मिक दृष्टिकोण से स्त्री शिक्षा का भी महत्त्व था, क्योंकि मनुष्य का यज्ञ तभी पूरा होता था, जब उसके दाहिनी ओर उसकी पत्नी होती थी। वेदों को समझने तथा उनको पढ़ने के लिए विद्याध्ययन आवश्यक था।

(2) प्राचीन शिक्षा संस्थायें – शिक्षा का प्रारम्भ प्राचीन काल में उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन का वास्तविक अर्थ ‘शिक्षा के समीप जाना’ विद्वानों के द्वारा माना गया है। शिक्षा ग्रहण करते समय ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना आवश्यक माना जाता था।

   प्राचीन काल में किसी विद्यालय का वर्णन नहीं मिलता है। प्राचीन काल में गुरु का घर ही विद्यालय माना जाता था। प्राचीन शिक्षा पद्धति को पारिवारिक शिक्षा पद्धति कहा जाता था, क्योंकि आचार्य अपने पुत्र, पौत्र तथा भतीजों आदि को शिक्षा प्रदान करता था। शिक्षा का कोई साहित्यिक अर्थ वेदमन्त्रों को रटना था।

    ऋग्वेद में कहीं भी लिखने का उल्लेख नहीं मिलता, ऋग्वेद में उच्चारण पर विशेष बल दिया जाता था। आचार्य शिष्य को वैदिक ग्रन्थों को याद करा देता था। शिक्षा की प्रमुख पद्धति यज्ञ-तप मानी जाती थी। प्राचीन काल में आत्मशिक्षण तपस्या के द्वारा ही सम्भव था। गुरु शिक्षा में विद्यार्थी की सहायता करता था। विद्यार्थी तप के बल पर ही मुनि, चित्र और मनिषी का पद प्राप्त करता था। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भाषण करने की क्षमता उत्पन्न करता था। ऋग्वेद काल में वैवाहिक मन्त्रों का भी यह उल्लेख मिलता है कि, “पत्नी को भी भाषण में कुशल होना चाहिए।”

      ऋग्वेद काल में कला-कौशल की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। पुरुषों के समान कन्याएँ भी ललित कला में कुशल होती थीं। स्त्रियों को नृत्य की शिक्षा भी दी जाती थी। स्त्रियाँ सभा में एकत्रित होकर बहुधा मंत्रों का गान करती थीं। ऋग्वेदकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य स्त्री एवं पुरुषों को साहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था, ताकि ये आर्य संस्कृति का विकास कर सकें। यदि शिष्य को पूर्ण ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो जाता था, तो वह आचार्य बन जाता था। ऋग्वेदकालीन स्त्री जुलाहों के कार्य तथा तीर एवं कमान निर्माण कला मेतं भी अधिक निपुण होती थीं।

(II) उत्तर वैदिक कालीन शिक्षा

      विद्यार्थी को, ऋग्वेद काल की तरह इस युग में भी ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। इस शिक्षा का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। वैदिक काल में विद्यार्थी का सर्वप्रथम उपनयन संस्कार होता था। इस संस्कार के द्वारा गुरु विद्यार्थी को दूसरे जीवन में प्रविष्ट कराता था तथा ब्रह्मचारी तथा द्विज बनाता था। इस सम्बन्ध में सायण ने व्याख्या करते हुए लिखा है कि,  ” उपनयन के पश्चात् विद्यार्थी को एक नया विद्यामय शरीर प्राप्त होता था। इस जीवन में उसे विशेष परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था । विद्यार्थी को काले हिरन की खाल पहननी पड़ती थी । विद्यार्थी को लम्बे बाल रखने पड़ते थे।    विद्यार्थी यज्ञ के लिये अग्नि लाता था और प्रतिदिन यज्ञ करता था। विद्यार्थी गुरु के लिए भिक्षा ग्रहण करता था । “

        शिष्य के लिए तप करना अत्यन्त आवश्यक था। विद्यार्थी तप के द्वारा गुरु के प्रसन्न रखता था। गुरु शिष्य के सत्य के पथ पर लाता था, क्योंकि ऐसा माना जाता था कि शिष्य के पाप गुरु को लगते थे। शिष्य गुरु का आदर करता था। शिक्षक और शिष्य में घनिष्ठ सम्बन्ध था। उससे यह सिद्ध होता है कि उत्तर वैदिक काल में शिक्षा को काफी महत्व दिया जाता था। अथर्ववेद में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, धन, आयु और अमृत्व है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सांसारित एवं आध्यात्मिक क्षेत्र दोनों में सफलता प्राप्त करना था।

(1) विद्यार्थी के कार्य –  उत्तर काल में कुछ ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य के नियमों का उल्लेख मिलता है । इस काल की शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषता, “शिष्य का गुरु के घर में निवास करना था।” विद्यार्थी को आचार्य कुल में निवास करते हुए अग्र कार्य करने पड़ते थे-

 (i) गुरु के लिए भिक्षा लाना,

(ii) गुरु के गृह का कार्य करना,

(iii) यज्ञ की सामग्री एकत्र करना,

(iv) गौ सेवा करना।

इस काल में इन कार्यों का विशेष महत्व था। ये कार्य प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अत्यावश्यक थे |

(2) शिक्षा के साधन उत्तर वैदिक काल में शिक्षा प्राप्ति की कोई आयु निर्धारित नहीं थी। इस सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद् से यह ज्ञात होता है कि, “श्वेतकेतु 12 वर्ष की आयु में अध्ययन के लिए गया था और उसकी शिक्षा 32 वर्ष की आयु में समाप्त हुयी थी।” कुछ उपनिषदों में 32 वर्ष की आयु तक शिक्षा जारी रहने के वर्णन मिले हैं। गुरुकुलों के अलावा सार्वजनिक पाठशालायें भी उपलब्ध थीं। बृहदारण्य उपनिषद् में कुछ परिषदों का भी उल्लेख मिलता है। इन परिषदों को विद्यापीठ के रूप में जाना जाता है।

    इन विद्यापिठों में भारी संख्या में विद्यार्थी शिक्षा के लिए आते थे। इस सम्बन्ध में एक उपनिषद् में लिखा है कि गुरु शिष्य से कहता है कि, “वह अब स्वयं ज्ञानार्जन करके उसके वितरण में घमण्ड न करे।” छात्रावस्था की समाप्ति पर शिक्षा की समाप्ति नहीं होती थी। कुछ व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में रहकर भी विद्या अर्जन करते थे। यह शास्त्रीय चर्चा तथा विशेषज्ञों तथा विद्वानों से शिक्षा लाभ करते थे। राजा की सभाओं में चर्चा परिचर्चा तथा वाद-विवाद के द्वारा भी शिक्षा का लाभ मिलता था।

 (3) स्त्री शिक्षा इस काल में स्त्री शिक्षा पर भी विशेष ध्यान तथा बल दिया गया था। स्त्रियों को वैदिक मन्त्रों का ज्ञान कराया जाता था । यजुर्वेद में शिक्षित तथा पुरुष का विवाह आदर्श माना गया। अथर्ववेद के अनुसार स्त्रियाँ पति के साथ यज्ञ में सम्मिलित होती थीं अर्थात् स्त्रियों को वेदों की शिक्षा प्रदान की जाती थीं। इस काल में स्त्रियाँ गृह कार्य, नृत्य तथा गायन में भी निपुण होती थीं। सूत की कताई व बुनाई का भी कार्य उन्हें उसी प्रकार दक्षता से आता था। स्त्रियों को पाकशास्त्र की शिक्षा दिये जाने का भी उल्लेख मिलता है।

(4) अध्ययन विधि उत्तर वैदिक काल में भी लेखन प्रणाली का आविष्कार नहीं हुआ था। मौखिक रूप से शिक्षा का आदान-प्रदान होता था। शिष्य गुरु के मुख से मन्त्र सुनकर उसे दुहरा कर कंठस्थ करता था। ब्रह्मचारी (शिष्य) प्रात:काल चिड़ियों के चहचहाने से पूर्व ही वेदपाठ प्रारम्भ कर देता था। सायंकाल वेदपाठ उच्च स्वर में किया जाता था। वेदों के अर्थ को जानना अति आवश्यक था। इस युग में उच्चारण की शुद्धता पर विशेष दिया गया।

 (5) अध्ययन विषय  उत्तर वैदिक काल में ही 6 वेदांग, आयुर्वेद, धुनर्वेद, गान्धर्ववेद आदि विशिष्ट शास्त्रों का जन्म इसी काल में हुआ। इस काल में अध्ययन विषय क्षेत्र विस्तृत था । छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, इस काल में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, व्याकरण, पित्रयशास्त्र, खनिज विद्या, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देवविद्या, ब्रह्म विद्या, प्राणिशास्त्र, सैनिकशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, शिल्प विज्ञान, देवजन विद्या (संगीत तथा अजुर्वेद) आदि।

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