स्थलमंडल क्या हैं ?

 

                                         2  . स्थलमंडल

     पृथ्वी का ठोस आवरण, जो धरातल के 29 प्रतिशत क्षेत्र को घेरे हुए है, ‘स्थलमंडल’ कहलाता है। पृथ्वी के सातों महाद्वीप स्थलमंडल के ही भाग हैं। स्थलमंडल विभिन्न प्रकार की चट्टानों से बना है और ये चट्टानें विभिन्न प्रकार के खनिजों एवं तत्त्वों से बनी हैं। पहाड़, पठार और मैदान स्थलमंडल के ही तीन प्रमुख रूप हैं।

     पृथ्वी तीन संकेन्द्री परतों से बनी है, जिसकी बाहरी परत स्थलमंडल है । स्थलमंडल को हम भूपृष्ठ भी कहते हैं। इस बाहरी परत या ऊपरी ठोस परत के दो भाग हैं- (i) सिआल (sial) और (ii) सिमा (sima)। सिआल silica और alumina जैसे हल्के तत्त्वों से बना है, अतः इनके आरंभिक दो-दो अक्षरों से (si+al=sial) शब्द बनाकर इस भाग का नामकरण किया गया है। इस भाग की प्रमुख चट्टान ग्रेनाइट है।सिमा silica के अतिरिक्त iron और magnesium जैसे अपेक्षाकृत भारी तत्त्वों से बना है| 

     अतः इनके प्रारंभिक अक्षरों से (s+i+ma = sima) शब्द बनाकर इस भाग का नामकरण किया गया। इस भाग की प्रमुख चट्टान बैसाल्ट है। महाद्वीपों के नीचे सिआल (sial) का विस्तार मिलता है जिसका औसत घनत्व 2.7 है। महासागरों के नीचे सिमा (sima) मिलता है जिसका औसत घनत्व 3 है। चूँकि सिआल सिमा से हल्का होता है, अतः कहा जाता है कि सभी महाद्वीप सिमा पर उपलाए हुए हैं। सिआल की अधिकतम गहराई या जड़ 60-70 किलोमीटर तक मिलती है।

     स्थलमंडल के नीचे की संकेंद्री परत प्रावार या मैंटल (mantle or mesosphere) है जिसकी गहराई 2,900 किलोमीटर तक है। यह परत अधिक घनी चट्टानों (denser rocks) से बनी है; जैसे—मैग्नेसियम और लौह सिलिकेट। इस परत का घनत्व 4.5 से 5.5 तक है।

     प्रावार (मैंटल) के नीचे क्रोड़ (core or barysphere) है। इस केंद्रीय पिंड का अर्द्धव्यास लगभग 3,500 किलोमीटर है। यह और अधिक घने तथा भारी तत्त्वों से बना है जिनमें निकेल (nickel) और लोहा ( ferrum) मुख्य हैं। इन दोनों शब्दों के आरंभिक अक्षरों से बनाया गया शब्द ‘निफे’ (ni+fe=nife) इस भीतरी धात्विक पिड का द्योतक है जिसका घनत्व 11 से भी अधिक है। धात्विक क्रोड़ के कारण ही पृथ्वी में चुंबकीयता है। अत्यधिक ताप और साथ ही अत्यधिक दबाव के कारण इसके तरल होने की संभावना प्रकट की जाती है, किन्तु भूकंप-तरंगों के अध्ययन से पता चलता है कि बाह्य क्रोड़ (2,900 से 5,100 किलोमीटर गहराई के बीच) तरल (द्रव) अवस्था में है और आंतरिक क्रोड़ (inner core) ठोस है।

      पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान क्रमशः बढ़ता जाता है (प्रति 32 मीटर पर 1°C), किन्तु बढ़ते दबाव के कारण ठोस धातु का गुण धारण करने में भीतरी भाग समर्थ है। जहाँ कहीं स्थलमंडल पर यह दबाव दरारों या कमजोर भाग के छिद्रों द्वारा निर्मुक्त होता है, धातु द्रवित होकर ज्वालामुखी के सहारे लावा (lava) के रूप में पृथ्वीतल पर आ जाता है। पृथ्वी के आन्तरिक ताप और भीतरी द्रव पदार्थों के स्थानान्तरण से भू-संचलन होता है (चाहे वह स्थानीय हो या व्यापक) और भू-संचलन स्थल-रूपों में उलट-फेर ला देता है ।

      भूपृष्ठ या भूपर्पटी (Earth’s crust) का निर्माण मुख्यतः 8 तत्त्वों से हुआ है- ऑक्सीजन, सिलिकन, अल्युमिनियम, लोहा, कैलसियम, सोडियम, पोटैसियम और मैग्नेसियम । इनमें प्रथम तीन का अनुपात सबसे अधिक है (क्रमशः 47%, 28% और 8%)। इन त्तत्त्वों के रासायनिक संयोग से ही खनिज बना करते हैं। (धरातल पर मूल तत्त्व 110 हैं।) खनिजों के मुख्य वर्ग निम्नांकित हैं-

  1. ऑक्साइड अर्थात् ऑक्सीजन प्रधान खनिज (जैसे—मैग्नेटाइट)
  2. सिलिकेट अर्थात् सिलिकन प्रधान खनिज (जैसे— क्वार्ट्जाइट)
  3. कार्बोनेट अर्थात् कार्बन प्रधान खनिज (जैसे-कैलसाइट)
  4. प्रकृत खनिज अर्थात् एक ही रासायनिक तत्त्व से निर्मित खनिज (जैसे—ताँबा )

 बनावट की प्रक्रिया या उत्पत्ति के आधार पर चट्टानों या शैलों (rocks) के तीन वर्ग किए जाते हैं— (1) आग्नेय, (2) अवसादी (परतदार) और (3) रूपांतरित (परिवर्तित) ।

1.आग्नेय चट्टानें (Igneous rocks) —

  1. पृथ्वी के अंदर जहाँ-तहाँ तप्त पिघले पदार्थों का भंडार (मैग्मा, magma) मिलता है। उसके ठंढा होकर ठोस हो जाने से आग्नेय चट्टानों का निर्माण होता है। भूसंचलन के कारण कभी-कभी यह
  2. पृथ्वी की दरारों में (अंदर ही) आकर ठोस रूप धारण कर लेता है और कभी
  3. दरारों से लावा के रूप में बाहर धरातल पर फैलकर ठोस रूप धारण करता है। हर हालत में पिघला हुआ मैग्मा ही आग्नेय चट्टानों को जन्म देता है। स्थान-भेद से इन्हें क्रमशः पाताली, अधिपाताली और ज्वालामुखी आग्नेय चट्टान कहा करते हैं जिनके उदाहरण हैं (क्रमशः) ग्रेनाइट, डोलेराइट और बैसाल्ट ।

2 . अवसादी (परतदार चट्टानें (Sedimentary rocks) – पृथ्वीतल पर मिलनेवाली चट्टानों के टूटने-फूटने, गलने सड़ने और अपरदित होने से जो कण, तलछट या अवसाद प्राप्त होते हैं, वे परतों में जमा होकर पुनः चट्टान बन जाते हैं। इन्हें तलछटी या अवसादी चट्टान कहते हैं। परतों में जमा होने के कारण इन्हें परतदार चट्टान भी कहा जाता है। प्रवाहित जल, हिमनद और पवन द्वारा ये अवसाद नदी-तल, झील या समुद्र में जमा हुआ करते हैं।

     इनमें जीवों के अवशेष भी जमा हो जाते हैं जो कड़े होकर जीवाश्म (fossils) बन जाते हैं। अवसाद या अपरदित चट्टानों के कण परत-पर-परत जमकर मोटी तह बना लेते हैं। दबाव से ये कड़े होते जाते हैं। सिलिका, चूना, लोहा, लवण आदि पदार्थ संयुक्त होकर कणों को जोड़ने का काम करते हैं। अवसादों का निक्षेप एक धीमी प्रक्रिया है, अतः ऐसी चट्टानों का निर्माण दीर्घकाल में होता है।

निर्माण के आधार पर अवसादी चट्टानों के तीन भेद किए जाते हैं।

  • अपरदन से बनी अवसादी चट्टानें, जिनमें अवसाद नदियों, झीलों और समुद्रों में जमा होकर क्रमशः नदीय शैल, सरोवरीय शैल और समुद्री शैल नाम पाते हैं। यदि चट्टान में बालू के कणों की प्रधानता हुई तो उसे बालूपत्थर (sandstone) कहेंगे और यदि चिकनी मिट्टी की प्रधानता हुई तो उसे शेल (shale) नाम देंगे। बालू, मिट्टी और बजरी (गोलाकार रोड़े) संयुक्त होने पर उसे कंग्लोमरेट (conglomerate) नाम दिया जाता है।
  • जैवों से बनी अवसादी चट्टानें, जिनमें जीवजंतु और पेड़-पौधों के अवशेष एक विशिष्ट प्रकार की चट्टान (जीवीय चट्टान या प्राणिज चट्टान) बनाते हैं। कोयला (coal) और चूनापत्थर (limestone) इनके उदाहरण हैं। कोयले में कार्बन की प्रधानता होती है और चूनापत्थर में चूने की।
  • रसायनों से निर्मित अवसादी चट्टानें, जिनमें कुछ घुलनशील पदार्थ पहले तो जल में घुलकर बह जाते हैं पर बाद में जल के सूख जाने पर तहों में जम जाते हैं। सेंधा नमक (rock salt) और जिप्सम (gypsum) इसी तरह बनी हुई अवसादी चट्टानें हैं।

    आग्नेय चट्टानों को प्राथमिक चट्टान (Primary rock) कहा जाए तो अवसादी चट्टानें द्वितीयक चट्टानें (Secondary rocks) कहलाएँगी। आग्नेय चट्टानें रवादार होती हैं, किन्तु अवसादी चट्टानों में रवे नहीं होते। आग्नेय चट्टानों में जीवाश्म नहीं मिलते, किन्तु अवसादी चट्टानों में जीवजंतुओं के अवशेष अंतःस्थापित हो सकते हैं, अतः जीवाश्म मिलते हैं। जीवाश्मों की सहायता से अवसादी चट्टानों की आयु का पता लगाया जा सकता है, साथ ही उस काल की जीवीय विशेषताओं की भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

3 . रूपांतरित चट्टानें ( Metamorphic rocks) — भूसंचलन के दौरान आग्नेय और अवसादी चट्टानें ताप और दबाव पाकर रूपांतरित हो जाती हैं अर्थात् इनके रूप, गुण और रासायनिक रचना में इतना परिवर्तन आ जाता है कि ये (पूर्व रूप से भिन्न हो जाने के कारण) सर्वथा नई चट्टान बन जाती हैं। रूपांतरित या परिवर्तित हो जाने के कारण इन्हें रूपांतरित चट्टान या परिवर्तित चट्टान नाम दिया जाता है।

     उदाहरण के लिए ग्रेनाइट रूपांतरित होकर नाइस (gneiss), शेल रूपांतरित होकर स्लेट, बालूपत्थर रूपांतरित होकर क्वार्टजाइट् (स्फटिक), चूनापत्थर रूपांतरित होकर संगमरमर और कोयला तथा ग्रेफाइट रूपांतरित होकर हीरा में बदल जाते हैं। रूपांतरण की प्रक्रिया में आग्नेय चट्टानों के खनिज भी बदल जाते हैं और नए खनिजों का निर्माण होता है। ये खनिज विभिन्न समानांतर सतहों में नए ढंग से व्यवस्थित हो जाते हैं। रूपांतरण के समय चट्टानों का खंडित होना आवश्यक नहीं होता। अवसादी चट्टानों के रूपांतरण में उनके जीवाश्म नष्ट हो जाते हैं।

      रूपांतरित चट्टानें पूर्ववर्ती मूल चट्टानों की अपेक्षा अधिक प्रतिरोधी और कड़ी हुआ करती हैं। कुछ रूपांतरित चट्टानों का रचना- विकास पट्टियों में (समानांतर सतहों में) नहीं भी हो सकता है; जैसे संगमरमर, क्र्वाट्जाइट, हीरा। आर्थिक दृष्टि से रूपांतरित चट्टानें बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करती हैं। धात्विक खनिजें इसीमें मिला करती हैं।

     स्पष्ट है कि स्थलमंडल का भी भौतिक वातावरण के सृजन में महत्त्वपूर्ण हाथ है। इसकी चट्टानें टूटकर मिट्टी का निर्माण करती हैं जिसके बिना न पेड़-पौधों का विकास हो सकता है और न कृषि आदि क्रिया-कलापों का स्थलमंडल में ही पहाड़-पठार और झील-झरनों के अनुपम दृश्य मिलते हैं और मानव-निवास के योग्य शस्यश्यामला धरती से युक्त आदर्श पर्यावरण मिलता है। पर्यावरण की भिन्नता भी पाई जाती है; जैसे – पर्वतीय पर्यावरण, पठारी पर्यावरण, मैदानी पर्यावरण, वन-पर्यावरण, तृणस्थलीय पर्यावरण, मरुस्थलीय पर्यावरण पर्यावरण की भिन्नता के कारण प्राणियों के जीवन-यापन में भिन्नता आ जाती है।

    स्थलमंडल में मिलनेवाले विभिन्न खनिज हमें विभिन्न धातुओं के अतिरिक्त ऊर्जा के साधन भी प्रदान करते हैं (जैसे—कोयला और पेट्रोलियम)। इन खनिजों पर आधारित कई उद्योग स्थापित किए जाते हैं। उद्योगों के विकास के साथ नगरों का विकास होता है और भौतिक पर्यावरण में बदलाव आता है।

    स्थलमंडल और इसपर मिलनेवाली स्थलाकृतियाँ परिवर्तनशील हैं। आंतरिक और बाह्यशक्तियाँ भूसंचलन तथा अनाच्छादन द्वारा धरातल पर निरंतर परिवर्तन लाया करती हैं; जैसे—भूसंचलन से धरती का कोई भाग ऊपर उठता है तो कोई भाग नीचे धँस जाता है, कहीं पर्वतों का निर्माण होता है तो कहीं लावानिर्मित पठारों का; अनाच्छादन से कहीं पहाड़ी घिसकर पठार और मैदान बन जाते हैं | मानव भी स्थालाकृतियों में परिवर्तन लाया करता हैं |

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