निबन्धात्मक परीक्षा
निबन्धात्मक परीक्षा का अर्थ – निबन्धात्मक परीक्षाओं का तात्पर्य ऐसी परीक्षण-प्रणाली से है जिसके अन्तर्गत सभी बालक पाठ्यक्रम के कई प्रश्नों के उत्तर निश्चित समय के अन्दर निबन्ध के रूप में देते हैं। इन परीक्षाओं में प्रश्नों के उत्तर इतने लम्बे होते हैं कि परीक्षक बालकों की विचार, तुलना, अभिव्यंजना, तर्क तथा आलोचना आदि शक्तियों के साथ-साथ विचारों को संगठित करने की योग्यता तथा भाषा एवं शैली आदि की जाँच भली-भाँति कर सकता है।
निबन्धात्मक परीक्षाओं के गुण – निबन्धात्मक परीक्षाओं में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं :
1 . सरल निर्माण – प्रश्न-पत्र के निर्माण में सरलता होती है । परीक्षक को पाठ्यक्रम के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित कुछ चुने हुए पक्षों के निर्माण में कोई कठिनाई नहीं होती और न तो उसे विषय के विशिष्ट ज्ञान की ही आवश्यकता होती है ।
2 . विचाराभिव्यक्ति की कुशलता का मापन – इसके द्वारा विचार अभिव्यक्ति की कुशलता का मापन होता है – लेखन – कुशलता, शैली, सुलेख, उद्धरणों एवं दृष्टांतों का मापन निबन्धात्मक परीक्षा द्वारा ही सम्भव है ।
3 . सभी विषयों के लिए उपयुक्त – निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग प्रत्येक विषय के लिए किया जा सकता है। केवल कुछ ही ऐसी योग्यताएँ तथा कौशल हैं जिनके परीक्षण के लिए नवीन प्रकार की परीक्षाएँ आवश्यक हैं अन्यथा ये पाठ्यक्रम के सभी विषयों के लिए उपयुक्त हैं ।
4 . अध्ययन करने की अच्छा आदत का विकास – निबन्धात्मक परीक्षाएँ बालकों में प्रत्येक पाठ की रूपरेखा बनाने तथा ज्ञान के विभिन्न अंगों में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए ऐसी प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए प्रेरणा देती हैं जो उनके लिए लाभदायक सिद्ध होती हैं। इससे बालकों में अध्ययन करने की अच्छी आदत का विकास होता है ।
5 . तथ्यों का दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग — निबन्धात्मक परीक्षणों के प्रश्न वर्णन करो, स्पष्ट करो, आलोचना करो, कारण बताओ तथा कथन की पुष्टि करो आदि शब्दों से आरम्भ होते हैं। इसमें जहाँ बालक एक ओर तथ्यों का वर्णन करते हैं वहीं दूसरी ओर वें उनकी दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग करना भी सीख जाते हैं ।
6 . भाषा तथा शैली में सुधार निश्चित – नवीन प्रकार की परीक्षाओं में बालकों को भाषा के प्रयोग करने का अवसर नहीं मिलता। परन्तु इन परीक्षाओं में भाषा लिखने पर अधिक बल दिया जाता है। इससे बालकों को जहाँ एक ओर अच्छी भाषा लिखने का प्रशिक्षण मिलता है वहाँ दूसरी ओर वे विचारों के प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना भी सीख जाते हैं|
7 . शिक्षक की कुशलता की जाँच – निबन्धात्मक परीक्षाओं द्वारा जहाँ एक ओर बालकों की मानसिक शक्तियों का परीक्षण होता है वहाँ दूसरी ओर इनके द्वारा शिक्षक – योजना, कुशलता एवं पटुता की जाँच भी आसानी से हो सकती है।
8 . सुविधाजनक — निबन्धात्मक परीक्षाएँ शिक्षक तथा बालक दोनों के लिए सुविधाजनक हैं। चूँकि इन परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र बनाने तथा प्रश्नों की जाँचने में किसी विशेष योग्यता तथा परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसलिए इन परीक्षाओं में सभी शिक्षक प्रसन्न रहते हैं ।
9 . उत्तर की स्वतंत्रता – नवीन प्रकार की परीक्षाओं में बालकों को सोचने, विचारने तथा तर्क-वितर्क करने की स्वतंत्रता नहीं होती। इसके विपरीत निबन्धात्मक परीक्षाओं में बालक अपने विचारों को तर्कपूर्ण ढंग से स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करते हैं ।
10 . समय, श्रम तथा धन की मितव्ययिता – निबन्धात्मक परीक्षाओं में हजारों बालकों की जाँच एक समय में होती है। उनकी उत्तर – पुस्तिकों का मूल्यांकन भी एक ही साथ होता है । सन्देह की दशा में उनकी उत्तर पुस्तकों को पुनः थोड़े से ही समय में जाँचा जा सकता है। साथ ही उनकी भावी सफलता के सम्बन्ध में बिना किसी कठिनाई के शीघ्र ही भविष्यवाणी भी की जा सकती है। उक्त बातों में समय, श्रम तथा धन की मितव्ययिता होती है।
निबन्धात्मक परीक्षाओं के दोष – निबन्धात्मक परीक्षाओं के निम्नलिखित दोष हैं :
1 . सर्वमान्य उद्देश्य का अभाव – इसके प्रश्नों में किसी सर्वमान्य उद्देश्य का अभाव होता है। प्रश्न पूछने का क्या उद्देश्य है और इसके उत्तर में किस पाठ्य – सामग्री की अपेक्षा की जाँच की जाती है, इस बात पर विभिन्न परीक्षक एकमत नहीं हो पाते। उधर परीक्षार्थी भी निश्चित रूप से नहीं जान पाते कि उत्तर में क्या सामग्री प्रस्तुत की जाये और प्रायः अटकल लगाकर लिख डालते हैं।
2 . प्रामाणिकता या वैद्यता की कमी – प्रत्येक मानक का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट क्षेत्र के मापन के लिए ही किया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षा द्वारा हम बालक की विभिन्न विषयों में उपलब्धि का सही और यथार्थ मापन नहीं कर पाते। इनके अनेक कारण हैं :
(क) प्रतिनिधित्व की कमी – पूरे प्रश्न-पत्र में 7 से 10 प्रश्न होते हैं। इतने कम प्रश्नों से बृहत् विषय का मूल्यांकन असम्भव-सा है। इससे प्रामाणिकता में कमी होती है। इतना ही नहीं, एक तो प्रश्न कम आते हैं, दूसरे ऐच्छिक होते हैं जिनमें 4 या 5 प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इससे प्रामाणिकता में और कमी आती है।
(ख) अप्रासंगिक तत्त्वों का मूल्यांकन – प्रश्न से सम्बन्धित तथ्यों के मापन के साथ-साथ अनायास ही अन्य चीजों का मापन भी होता है। जैसे लेखन कुशलता, सुलेख, पृष्ठसंख्या, उद्धरणों और मुहावरों का प्रयोग या स्वच्छता इत्यादि। इससे मापन की वैद्यता में कमी आती है।
(ग) रटन पर बल – निबन्धात्मक परीक्षाए स्मरण शक्ति या रटने की योग्यता का मापन करती हैं। फलतः कुछ विद्यार्थी परीक्षा काल में ही 10 से लेकर 14 घण्टों तक पाठ्यक्रम से चुने हुए कुछ प्रश्नों को रटते हैं और अच्छे विद्यार्थी सामान्य कोटि में आ जाते हैं।
(घ) अंक प्रदान करने की आत्मनिष्ठा – निबन्धात्मक परीक्षाओं में उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की कोई परिमापित विधि नहीं होती अपितु इनमें अंक प्रदान करते समय परीक्षक की आत्मनिष्ठा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। दूसरे शब्दों में, इन परीक्षाओं पर शिक्षक की रुचि, योग्यता तथा मूड के साथ-साथ उसके मानसिक दृष्टिकोण का गहरा प्रभाव पड़ता है।
3 . विश्सनीयता की कमी — कोई भी उपकरण या परीक्षण तभी विश्वसनीय होगा जब उसके द्वारा बार-बार मापन किया जाए, तब फलांक मान लगभग एक समान और स्थिर हो। परन्तु निबन्धात्मक परीक्षा विश्वसनीय नहीं है। फिलिप हरटाँग, स्टार्च इलियट, बोलार्ड तथा रिल्सलैण्ड इत्यादि ने अपने अध्ययनों से यह प्रमाणित किया है कि एक ही उत्तर-पुस्तिका के विभिन्न परीक्षकों द्वारा या एक ही परीक्षक द्वारा भिन्न-भिन्न समय पर किए गए मूल्यांकन से प्राप्त अंकों में काफी विषमता पाई गई है।
4 . उद्दीपन की कमी – इन परीक्षाओं में उद्दीपन की बहुत कमी होती है। बालकों को प्रायः ऐसी सामग्री रटनी पड़ती है जिसका उनके वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । इस कमी के कारण बालकों में सीखने की प्रवृत्ति का विकास नहीं होता ।
5 . लिखने की गति और शैली पर अधिक बल – जिस बात को मापने के लिए परीक्षण का निर्माण किया जाता है उस विषय की वास्तविक जाँच इन परीक्षण से नहीं हो पाती वरन् इसमें प्रायः सही भाषा, सुन्दर हस्तशिल्प और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के आधार पर अंक दे दिये जाते हैं। अतएव इस परीक्षण में वैद्यता की भी कमी हो जाती है।
6 . भविष्यवाणी करना कठिन — निबन्धात्मक परीक्षों में अंक प्राप्ति बालकों को रटने की शक्ति पर निर्भर करती है। अतः इन परीक्षाओं के परिणामों के आधार पर यह भविष्यवाणी नहीं की जाती कि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाला सामान्य ज्ञान तथा व्यवहार में भी प्रथम होगा ।
7 . शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य में बाधा – अनियमित दिनचर्या से छात्र स्नायुरोगी या चिड़चिड़े हो जाते हैं। इतना ही नहीं, परीक्षाफल में विस्तृत तथ्यों को स्मरण में लाने के लिए छात्र छोटे-छोटे चिटों या अन्य अनुचित साधनों का प्रयोग करते हैं ।
8 . मूल्यांकन में कठिनाई – निबन्धात्मक परीक्षों में उचित मूल्यांकन सम्भव नहीं है। अभी तक कोई ऐसा निश्चित मापदण्ड नहीं बनाया गया जिसकी सहायता से बालकों की प्रगति का उचित मूल्यांकन किया जा सके। कभी-कभी तो एक अथवा दो अंकों की कमी के कारण वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं अथवा उचित श्रेणी पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
9 . खर्चीली या अधिक समय लेने वाली – त्रैमासिक, षट्मासिक या वार्षिक परीक्षाओं के समय का अधिक अपव्यय होता है तथा प्रश्न-पत्र निर्माण और उत्तर पुस्तिकाओं में अधिक धन खर्च होता है। इस प्रकार निबन्धात्मक परीक्षा अधिक खर्चीली और समय लेने वाली है।