अभिप्रेरणा का अभिप्राय क्या होता है

अभिप्रेरणा के सम्प्रत्यय को सर्वप्रथम मैगडूगल ने अपनी ‘मूल-प्रवृत्ति की धारणा के माध्यम से लोकप्रिय बनाया। उन्होंने सन् 1921 ई में यह बताया कि “प्राणी के सभी व्यक्तिगत या सामूहिक विचारों या क्रियाओं के आवश्यक स्रोत या प्रेरक शक्ति के रूप में उसकी मूल प्रवृत्तियों को उपकल्पित किया जा सकता है। ये मूल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति या राष्ट्र के चरित्र या संकल्प को उनकी बौद्धिक संकायों के निर्देशन द्वारा विकसित करने में बदद देती है। बाद में चलकर मैगडूगल ने उन्हें जन्मजात सहज प्रवृत्तियों (इनेट प्रोपेन्सिटीज) क नाम से अभिहित किया और इन्हें दो वर्गों में विभक्त किया

(i) ये विशिष्ट प्रवृत्तियाँ या मूल प्रवृत्तियाँ, जिन्हें उनके सहवर्ती संवेगों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है।

(ii) अपेक्षाकृत अधिक सामान्य कोटि की जन्मजात सहज प्रवृत्तियाँ, जिनके मुख्य उदाहरण है-सहानुभूति, संसूचनात्मकता तथा अनुकरण ।

मैगडूगल की मूल-प्रवृत्ति सम्बन्धी धारणा जहाँ एक ओर सहसा अत्यन्त लोकप्रिय बन ई वहाँ दूसरी ओर तीव्र प्रत्यालोचना का शिकार भी हुई। इस धारणा के विरुद्ध प्राय ह बात उठाई गई कि इसके द्वारा व्यवहार की सम्यक् व्याख्या संभव नहीं है तथा इसमें क्रीय तर्क पर आधारित होने का खतरा मौजूद है। उदाहरणार्थ, अमुक व्यक्ति लड़ता हैसा क्यों? उसमें युयुत्सा (आक्रोश) की मूल-प्रवृत्ति है। कैसे मालूम कि उसमें इस प्रकार मूल-प्रवृत्ति विद्यमान है ? क्यों वह लड़ता है?

स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्याख्या एवं उसे समर्थन प्रदान करने वाला तर्क चक्रीय ने के कारण कितना दोषपर्ण है। मैगडगल के बाद के मनोवैज्ञानिकों ने ‘मुल-प्रवृत्ति शब्द – अनुप्रयोग में कोई विशेष विवेक या सावधानी नहीं बरती, जिससे एक अत्यन्त उपहासात्मक थति हो गई है।

फ्रेडरिक जे मैक्डोनाल्ड के अनुसार, “अभिप्रेरणा का तात्पर्य व्यक्ति के भीतर उस र्जा-परिवर्तन से है, जिसमें भावात्मक प्रबोधन तथा प्रत्याशित लक्ष्य प्रतिक्रिया निहित हो। अत: अभिप्रेरणा के अन्तर्गत तीन तत्त्व मौजूद होते हैं –

(i) अभिप्रेरणा का प्रारम्भ व्यक्ति के ऊर्जा-परिवर्तन से जुड़ा होता है। अतः यह ऊर्जा-परिवर्तन दो प्रकार से होता है-भौतिक आवश्यकताएँ और मनोसामाजिक आवश्यकताएँ। 

(ii) अभिप्रेरणा की दशा प्रणाली एक तरह का भावात्मक प्रबोधन प्रदर्शित करता है ।अर्थात् व्यक्ति किसी कार्य के प्रति सहज रूप में आकर्षण या खिंचाव करता है। उदाहरणार्थ अभिप्रेरणा की दशा में छात्र ध्यानपर्वक अपने अध्ययन कक्ष में पढ़ सकता है तथा वह अपने विषय की तैयारी कर सकता है।

(iii) अभिप्रेरणा के अन्तर्गत व्यक्ति एक प्रत्याशित लक्ष्य प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करता है। वह ऐसी अनुक्रियाएँ व्यक्त करता है, जो उसे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है।

 उदाहरणार्थ भूखा व्यक्ति भोजनालय की ओर एवं प्यासा प्याऊ की ओर जाने की चेष्टा करता है। 

 प्रत्याशित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपेक्षित अनक्रियाओं को उत्पन्न करने से प्राणी में अन्ततोगत्वा ऊर्जा-परिवर्तन होता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने तनावों को दूर कर लेता है और एक सन्तोष या तुष्टि की अवस्था में पहुँच जाता है। इस प्रकार अभिप्रेरणा के अन्तर्गत ये तीनों तत्त्व इस सम्प्रत्यय की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।

व्यक्ति का → लक्ष्य साधक → लक्ष्य सम्प्राप्ति → प्रबोधन की दशा का प्रबोधन व्यवहार न्यूनीकण या अवलोप 

अतः प्रदर्शित प्रतिमान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा के लिए व्यक्ति के प्रबोधन का होना आवश्यक है। प्रबोधित हो जाने पर वह लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपेक्षित व्यवहार उत्पन्न कर लेता है। इस प्रकार के व्यवहार के परिणामस्वरूप लक्ष्य की सम्प्राप्ति होती है।

अभिप्रेरणा के इस प्रतिमान में दो महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ है : 

(i) व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ऐसी अनुक्रियाएँ उत्पन्न कर सकता है जो उसके मनोवैज्ञानिक तनावों को दूर करने में समर्थ हैं। लेकिन कई परिस्थितियों में दुर्गम एवं असाध्य लक्ष्यों का चयन कर सकता है।

 (ii) लक्ष्य की सम्प्राप्ति के लिए संतोषदायिनी होती है, परन्तु उसका यह अनुमान कि कुछ विशेष प्रकार के लक्ष्य उसकी आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकते हैं, गलत भी सिद्ध हो सकता हैI

अभिप्रेरणा के सम्प्रत्यय की विलक्षणताएँ—

अभिप्रेरणा के सम्प्रत्यय को समझने तथा इसकी विलक्षणता की सम्यक् पहचान की दृष्टि से अधोलिखित विशेषताओं पर ध्यान देना आवश्यक है—

(i) अभिप्रेरणा के अन्तर्गत निर्देशपूर्णता होती है। अभिप्रेरित व्यक्ति चयनात्मक व्यवहार प्रदर्शित करता है।

 (ii) अभिप्रेरणा के सम्प्रत्यय द्वारा व्यवहार के चयनात्मक स्वरूप की व्याख्या सम्भव है। इसके माध्यम से यह कह पाना कठिन है कि व्यक्ति जिन अनुक्रियाओं कोउत्पन्न कर लेता है, उन्हें किस तरह सीखा है।

 (iii) अधिगम हेतु अभिप्रेरणा को आवश्यक माना जाता है। किन्तु, इसे पर्याप्त कारक के रूप में नहीं अंगीकृत किया जा सकता। 

 (iv) अभिप्रेरणा के उत्पन्न होने के लिए अधोलिखित तीन कारकों में से किसी एक का उपस्थित होना आवश्यक है— पर्यावरण जन्य, अर्थात् जो व्यवहार को उत्पन्न किया है। आन्तरिक इच्छा या चाह, अभिप्रेरक लक्ष्य या वस्तु मूल्य, अर्थात् जिससे प्राणी आकर्षित हुआ है। 

(v) प्रत्येक संस्कृति एवं व्यक्ति के सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुसार प्रेरकों की अभिव्यक्ति परिवर्तित होती रहती है।

 (vi) एक ही प्रेरक की अभिव्यक्ति अनेक रूपों में होती है। किसी व्यक्ति को प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए हम उसकी निन्दा, उसके भ्रष्टाचारी होने का प्रचार, उस पर आक्रमण या उसकी उपस्थिति से बचने का व्यवहार आदि में एक या कई तरीकों का अनुप्रयोग प्रायः एक साथ करते हैं।

 अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले कारक

अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है:

1.उत्तेजना –  वास्तव में जीवन में कोई भी कार्य सक्रिय हुए बिना या उत्तेजना के अभाव मे पूरा नहीं किया जा सकता है। अतः उत्तेजना को व्यक्ति की सक्रियता हेतु आवश्यक घटक माना गया है।

प्रायः प्राणी सरल उद्दीपक को तो प्राप्त करना चाहते हैं परन्तु कठोर उद्दीपक से दूर भागना चाहता है, इसलिए प्रयास यह होना चाहिए कि व्यक्ति में मध्य स्तर उत्तेजना विद्यमान रहे । यह उत्तेजना उसे बाह्य व आन्तरिक स्रोत से मिलती है।

बाह्य स्त्रोत के अन्तर्गत प्राणी के विचार तथा हवाई कल्पना आदि आते हैं। अत: उत्तेजना का छात्र की उपलब्धियों से धनात्मक सह-सम्बन्ध होने पर यह अभिप्रेरणा को प्रभावित करती है।

2.प्रोत्साहन – व्यक्ति की क्रियाओं को लक्ष्य अथवा प्रोत्साहन द्वारा प्रेरित किया जा सकता है। व्यक्ति हर प्रकार की छोटी-बड़ी क्रियाओं के बदले कुछ न कुछ पाना चाहता है जितना प्रोत्साहन का आकार बड़ा होगा, उतनी ही प्रेरणा अधिक होगी। इस प्रकार व्यक्ति के कार्य शक्ति प्रोत्साहन की प्रकृति पर निर्भर करती है।

उदाहरणार्थ चूहा भूलभूलैया में इसलिए दौड नहीं लगता कि उसे भूख लगी होती है बल्कि दौड़ इस आशा के साथ लगाता कि जब वह लक्ष्य पर पहुंच जाएगा तो उसे खाना अवश्य मिलेगा। वह भोजन ही उसके लिए प्रोत्साहन का कार्य करता है। चूहे के दौड़ने की गति उस स्थिति में और भी तेज जो जाएगी, जब भोजन की मात्रा पहले से अधिक हो जाएगी इसलिए व्यक्ति किसी भी कार्य को कितने जोश व फुर्ती से करता है, यह प्रोत्साहन की प्रकृति पर निर्भर करता है।

प्रोत्साहनका व्यक्ति पर प्रभाव देखने के लिए 1962 में एल्बर्ट बेण्डुरा ने एक अध्ययन किया। उन्होंने किसी कक्ष के छात्रों को तीन वर्गों में विभक्त करके उन्हें एक फिल्म दिखाई ।

फिल्म दिखाते समय पहले समूह को दंडित किया गया, दूसरे समूह को पुरस्कृत किया गया तथा तीसरे समूह को न दण्डित किया गया और न ही पुरस्कृत अर्थात् इसे नियंत्रित समूह माना गया। कुछ समय के बाद छात्रों को जब उसी मॉडल का अनुकरण करने के लिए कहा गया तो देखा गया कि प्रथम समूह ने शेष दो समूहों से कम अवांछित अनुक्रियाएँ की।

प्रयोग की दूसरी अवस्था में तीनों समूहों को एक जैसे आकर्षण प्रोत्साहन दिये गये, तो देखा गया कि तीनों समूहों ने एक जैसी अनुक्रियाएँ की । इससे स्पष्ट है कि मानव व्यवहार पर पुरस्कार एवं दण्ड प्रोत्साहन के रूप में बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं।

3.जागरूकतायदि शिक्षक विभिन्न प्रविधियों के माध्यम से छात्रों में शिक्षण के प्रति जागरूकता का विकास करने में सक्षम हो जाता है, तो अधिगम प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती रहती है।

अतः विद्यार्थियों को निर्दिष्ट व्यवहार की दिशा में प्रेरित करने के लिए जागरूकता एक प्रबल चालक के रूप में कार्य करता है। छात्रों में जागरूकता उत्पन्न होने पर वे शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में अबाधगति से भाग ले सकते हैं। जागरूकता द्वारा बालकों के विकास व अन्य शैक्षणिक उपलब्धियाँ भी प्रभावित होती हैं।

अतः शिक्षक को चाहिए कि वह सचेत रहकर सतत रूप से उन्हें सक्रिय रख सके ताकि छात्रों के विकास का संभावनाओं में वद्धि हो सके। जागरूकता के तीन स्तर होते हैं-

(i) उच्च स्तर पर जागरूकता,

 (ii) मध्यम स्तर पर जागरूकता,

 (iii) निम्न स्तर पर जागरूकता

उच्च स्तर की जागरूकता में छात्र लक्ष्य की दिशा की ओर सतत् रूप में अग्रसर होने

के प्रयास में चिन्तामग्न दिखाई देते हैं। मध्यम एवं निम्न स्तर की जागरूकता में निद्रा या सचेत अवस्था में दिखायी देते हैं। जागरूकता के दो मख्य स्रोत होते हैं-

(i) आन्तरिक स्रोत्र एव       (ii) बाह्य स्रोत ।

 आन्तरिक स्रोत के अन्तर्गत के छात्रों की अभिवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा विचार आदि को सम्मिलित किया जाता है तथा बाह्य पर्यावरण से प्राप्त होने वाले उद्दीपन जागरूकता के बाह्य स्रोत कहलाते हैं। विद्यालय में शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक को शिक्षार्थियों में मध्यम स्तर की जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।

4. आकांक्षा – प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कुछ निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने की इच्छा करता है तथा उन तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रयास व उपाय करता है। ये इच्छाएँ या लालसाएँ ही व्यक्ति की आकांक्षाएँ होती हैं तथा इनका उच्चतम स्वरूप ही व्यक्ति का आकांक्षा स्तर कहलाता है।

व्यक्ति का आकांक्षा स्तर जितना उच्च होता है, जीवन में वह उतना ही अधिक सफलता प्राप्त करता है। किन्त यह सफलता उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त हो सकती है  जो वास्तविकता को ध्यान में रखते हए आकांक्षा स्तर का निर्धारण करते है क्योकि इन्हें  प्राप्त करना व्यक्ति की योग्यताओं, क्षमताओं एव वातावरण पर भी निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की गति भी सभी छात्रों में भिन्न-भिन्न है| जिस बालक में जितनी उच्च आकांक्षा होगी, वह उतना शीघ्र अपने निर्धारित लक्ष्य का प्राप्त कर लेगा। जागरूकता पर भी आकांक्षा अवधान, रुचि, गति आदि का परोक्ष प्रभाव पड़ता है।

अतः शिक्षक को चाहिए कि वह विभिन्न प्ररेकों द्वारा बालकों की आकांक्षा को सबल बनाये। इसके साथ ही लक्ष्य की स्पष्टता, बालक की योग्यता, क्षमता तथा प्रगति के सतत् ज्ञान द्वारा भी आकांक्षा उत्पन्न की जा सकती है।

5.दण्डसोलोमन के अनुसार,” दण्ड एक उद्दीपन के समान है जिससे व्यक्ति बचने का प्रयास करता है अथवा उनसे दूर भागना चाहता है।”  इस प्रकार दण्ड एक निषेधात्मक अभिप्रेरक है जिसके द्वारा छात्रों को अवांछित कार्यों को करने से रोका जाता है। दण्ड से भय उत्पन्न होता है ।

प्रायः अनुचित कार्यों को विमुख करने के लिए उन्हें दण्ड दिया जाता है कि दण्ड आवांछित कार्यों के साथ दु:खद भावना को सम्बन्धित करके अवांछित कार्यों को रोकने का साधन है।जहाँ तक छात्र को दण्ड दिये जाने का प्रश्न है वहाँ इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि दण्ड, तभी दिया जाये जब इसे देना अपरिहार्य हो अर्थात् दूसरे तरीकों से छात्र के अवांछित व्यवहार पर अंकुश लगाना संभव न हो।

लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि दण्ड का प्रयोग पूर्णतया वर्जित है। कभी-कभी दण्ड के भी चमत्कारी प्रभाव देखने को मिलते हैं। परन्तु इसका अत्यधिक प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता। अतः दण्ड द्वारा भी छात्रों को बुरे कार्यों से हटाकर अच्छे कार्यो की ओर अभिप्रेरित किया जा सकता है।

 दण्ड देते समय शिक्षक को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए–

(i)    दण्ड तभी दिया जाये जब अन्य उपायों से सफलता न मिल पा रही हो।

(ii)   जब अवांछित व्यवहार के परिणाम क्षतिपूर्ण एवं घातक हों।

(iii)  अवांछनीय व्यवहार करने पर ही छात्रों को दण्ड देना चाहिए, नहीं तो उनमें कुंठा, तनाव, भय विकसित हो जाएगा। 

(iv)   दण्ड देते समय छात्र को स्पष्ट बता दिया जाये कि उसे दण्ड किस बात के लिए दिया जा रहा है। 

(v)   दण्ड अपराध के अनुपात में दिया जाये।

( vi)  दण्ड छात्र की शारीरिक व् मानसिक स्थिति  को ध्यान में रखकर दिया जाये |  

(vii) दण्ड दूसरे छात्रों के समक्ष दिया जाये ताकि वे उस गलती से सबक ले सके।

 (viii) दण्ड तत्काल दिया जाना चाहिए।

6.आवश्यकताएँ – आवश्यकता को आविष्कार की जननी माना जाता है । व्यक्ति किसी भी कार्य हेतु अभिप्रेरित तभी होता है जब उसे किसी बात की आवश्यकता का अनुभव होता है। यही प्रवृत्ति बालक में भी होती है। अतः शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वह छात्रों को पाठ्यवस्तु की आवश्यकता का अनुभव कराये।

7.संवेगात्मक स्थिति – बालक की संवेगात्मक स्थिति भी अभिप्रेरणा को प्रभावित करती है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों की संवेगात्मक स्थिति का ध्यान रखे तथा जो भी ज्ञान उन्हें दिया जा रहा है, उसमें उनकी रुचि का ध्यान रखे। छात्रों द्वारा सीखे गये ज्ञान का छात्रों के साथ संवेगात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जिसमें छात्र सहजता से प्रेरणा प्राप्त कर लेते हैं।

8.प्रगति का ज्ञान –  छात्रों को उनके द्वारा सीखे गये ज्ञान की प्रगति से समय-समय पर उन्हें अवगत कराते रहना चाहिए ताकि छात्र सक्रिय रह सकें व अधिक से अधिक ज्ञान अर्जन कर सकें।

       इन कारकों के अतिरिक्त भी विद्यालय का वातावरण, प्रतियोगिता, परिचर्चाएँ, सम्मेलन, रुचि, आदतों आदि में भी अभिप्रेरणा प्रभाव डालते हैं। अत: इनका यथोचित प्रयोग होना चाहिए।

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