मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
2 . इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
3 . रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
4 . नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
5 . बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
1 . जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
2 . अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
1 . गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
2 . मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
3 . फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
1 . बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
2 . सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
3 . इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
1 . बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
2 . हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
3 . अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
4 . जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
5 . शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
6 . औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
1 . वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
2 . वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
3 . वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
1 . प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
2 . पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
3 . शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
4 . अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
1 . प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
2 .पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
3 . शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
4 . गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
5 . वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
6 . छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
7 . परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
1 . स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
2 . सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
3 . चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
4 . ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
5 . शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
1 . इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
2 . मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
3 . सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
4 . मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
5 . विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
6 . धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
1 . चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
2 . व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
3 . धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
4 . निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
5 . व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
6 . कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
7 . साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
1 . स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
2 . लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
3 . जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
4 . आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
5 . कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
6 . शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
7 . नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
8 . छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
9 . दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।
मुस्लिम शिक्षा- प्रणाली के क्या उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली को हम मुस्लिम- कालीन शिक्षा-प्रणाली के नाम से जानते हैं। चूँकि भारत प्राचीन काल में समृद्धशाली देश था, इसलिए विदेशी भी यहाँ आक्रमण करते रहे । मुस्लिम आक्रमणकारी भी भारत में अपना शासन स्थापित करना चाहते थे। महमूद गजनवी पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था, जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया। उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जिससे जनसामान्य का जीवन भी प्रभावित हुआ ।
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गोरी ने राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके भारत में सर्वप्रथम मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। इसलिए गोरी से लेकर मुगल शासकों की समाप्ति
(12 वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी) तक भारत पर मुस्लिम शासकों का ही आधिपत्य रहा । मोहम्मद गोरी के पश्चात् गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश के शासकों ने भारत पर 1757 ई० तक अपना आधिपत्य बनाये रखा। इस प्रकार इन मुस्लिम शासकों ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया।
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने प्राचीन शिक्षा केन्द्रों एवं पुस्तकों को जलाया और उनके स्थान पर मकतब और मदरसों का निर्माण कराकर इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार का साधन बनाया। इस प्रकार इस शासन काल में हिन्दू शिक्षा मृतप्राय-सी हो गई। डॉ० केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जो भारत में प्रतिरोपित की गई आर अपनी नई भूमि में विकसित हुई, जिसका ब्राह्मणीय शिक्षा से अल्प सम्बन्ध था।”
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा की प्रगति
पूर्व मुगल काल (गुलाम वंश 1206-1290 ई०) :
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1236 ई०) – कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनेक मन्दिर तुड़वाकर मकतबों तथा मस्जिदों का निर्माण करवाया, जहाँ पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी ।
- इल्तुतमिश (1211-1236 ई०) – इल्तुतमिश के शासनकाल में शिक्षा सम्बन्धी कोई प्रयास नहीं किया गया ।
- रजिया (1236-1240 ) – रजिया के शासन काल में दिल्ली में मुइज्जी मदरसा नाम की संस्था स्थापित हुई ।
- नासिरूद्दीन (1246-1265 ई०) – इसके शासनकाल में फारसी भाषा का अधिक विकास हुआ।
- बलबन (1265-1286 ई०) – बलबन के शासन काल में संस्कृति और साहित्य का सर्वांगीण विकास हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई०) :
- जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296 ई० ) – जलालुद्दीन खिलजी उदार और शिक्षा प्रेमी शासक था । वह विद्वानों और साहित्यकारों का आदर करता था एवं साहित्य रचना के लिए उन्हें प्रेरित करता था । उन्होंने दिल्ली के नजदीक एक पुस्तकालय की स्थापना भी किया ।
- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शिक्षा के प्रगति को ठेस लगी तथा शिक्षा का विकास अवरुद्ध हो गया। अतः इनके शासन काल में शिक्षा का विकास काफी अवरूद्ध हुआ ।
तुगलक वंश (1320-1412 ई०) :
- गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई०) — गयासुद्दीन तुगलक शिक्षा में रुचि रखता था तथा विद्वानों का आदर भी करता था। इन्होंने एक सांस्कृतिक भवन का शिलान्यास किया तथा विद्वानों का उनकी रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया ।
- मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) — मोहम्मद तुगलक उच्च कोटि का विद्वान व लेखक था। साहित्य रचना को उसके शासन काल में काफी प्रोत्साहन मिला। इनके शासन काल में अनेक मकतब खोले गये ।
- फिरोजशाह तुगलक (1351-1389 ई०) – फिरोजशाह तुलगक भी शिक्षा प्रेमी तथा ने साहित्य में रुचि रखने वाला शासक था। उन्होंने अनेक मकतब तथा मदरसे खुलवाये। उनके द्वारा खोले गये मदरसों में सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया था।
सैय्यद वंश (1414-1431 ई०) :
सैय्यद वंश को शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की गई ।
लोदी वंश (1451-1481 ई०) :
- बहलोल लोदी (1451-1481 ई०) – इसके शासन काल में शिक्षा और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी विकास हुआ। कुछ नये मदरसे भी इन्होंने खुलवाया।
- सिकन्दर लोदी (1481-1517 ई०) – सिकन्दर लोदी ने भारतीय शिक्षा को हानि पहुँचाया। परन्तु, मुस्लिमों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। वह साहित्यिक और कला प्रेमी था ।
- इब्राहिम लोदी (517-1526 ई०) – इब्राहिम लोदी ने शिक्षा के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया ।
मुगल काल (1526-1757 ई०) :
- बाबर (1526-1530 ई० ) – बाबर तुर्की भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था । उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों के प्रकाशन और नये-नये स्कूलों की खोलने का कार्य सम्पन्न कर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया ।
- हुमायूँ (1530-1555 ई०) – बाबर के पुत्र हुमायूँ को काफी परेशानियों का सामना अपने जीवन में करनी पड़ी। परन्तु, वह स्वयं अध्ययन में इतनी रुचि रखता था कि वह सदैव कुछ खास महत्त्वपूर्ण पुस्तकें का संग्रह करता था । उन्होंने भी कई मदरसे तथा पुस्तकालय खुलवाये ।
- अकबर (1555-1605 ई०) – अबकर ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी कार्य किया । इन्होंने शिक्षा को जीविकोपार्जन से सम्बन्धित किया । इन्होंने भी कई स्थानों पर मदरसों की स्थापना कर उच्च शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया । जिसमें संगीत, गणित, चित्रकला आदि की शिक्षा दी जाती थी। अकबर तो स्वयं अशिक्षित था, परन्तु, शिक्षा का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने कई मकतबों की भी स्थापना की। वे विद्वानों का आदर करते थे। अबकर के शासन काल में पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति और शिक्षा व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।
- जहाँगीर (1605-1627 ई०) — जहाँगीर के शासन काल में शिक्षा का विकास हेतु काफी प्रयत्न किया गया । उन्होंने एक नियम बनाया कि यदि किसी धनी व्यक्ति की मृत्यु बिना औलादा के हो जाये तो उसकी सारी सम्पत्ति मकतबों तथा मस्जिदों के निर्माण के लिए खर्च की जाये । इसके परिणामस्वरूप काफी पुराने पड़े कई मदरसों की मरम्मत हुई ।
- शाहजहाँ (1627- 1657 ई० ) – शाहजहाँ शिक्षा की अपेक्षा काल में अधिक रुचि रखते थे । उनके समय में शिक्षा के लिए बहुत कम प्रयास हुए । परन्तु, इन्होंने भी कई पुराने पड़े मदरसों को मरम्मत करवाया। इन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट एक मदरसे की स्थापना भी की।
- औरंगजेब (1657-1707 ई० ) – औरंगजेब के समय शिक्षा के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी । इनके शासन काल में शिक्षा के क्षेत्र केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित हो गया। वे शिक्षा-प्रेमी तो था, परन्तु हिन्दुओं से द्वेष रखते थे । उन्होंने भी अनेक मकतब और मदरसे बनवाये । औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य तथा शिक्षा दोनों का ही पतन हो गया ।
मुस्लिम काल में शिक्षा का विकास – मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग पर आधारित थीं । प्रायः समस्त शासक एकतंत्रीय एवं स्वेच्छाचारी थे। जिस शासक की शिक्षा के प्रति अरुचि थी, उसके समय में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति हुई। इसके विपरीत, जिसकी शिक्षा के प्रति अरुचि हुई तो उसके शासनकाल में शिक्षा की दशा बड़ी दयनीय रही। इस प्रकार शिक्षा के विकास की दृष्टि से मुस्लिम शासकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है—
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षित तथा शिक्षा-प्रेमी थे। उनके शासन काल में शिक्षा के प्रसार के लिए पूरे प्रयास किये गये ।
- वे मुस्लिम शासन जिनका एकमात्र उद्देश्य लूटमार करना तथा विजय हासिल करना था, उनके समय में भारतीय शिक्षा को बहुत ही हानि पहुँची ।
- वे मुस्लिम शासक जो शिक्षा के प्रति उदासीन थे, अर्थात् न तो प्राचीन संस्थाओं को नष्ट किया और न ही शिक्षा के प्रसार में कोई सहयोग किया।
शिक्षा की व्यवस्था – मध्यकाल में प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र मकतब तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र मदरसा थे । मुस्लिम शासकों ने मस्जिदों से जुड़े हुए मकतबों और मदरसों की स्थापना की थी। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा मकतबों और मदरसों में व्यवस्थित थी ।
प्रारंभिक शिक्षा – बालकों की प्रारंभिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी । मकतब अरबी भाषा के कुतुब शब्द से बना है, जिनका अर्थ है-लिखना । इस प्रकार मकतब का शाब्दिक अर्थ उस स्थान विशेष से है, जहाँ बालक को लिखना सिखाया जाता है। मकतब किसी मस्जिद के साथ ही जुड़े होते थे। प्रारंभ में बालक को लिपि का ज्ञान कराया जाता था। पढ़ने और लिखने के अलावा बालक को गणित भी सिखाया जाता था। नैतिकता की शिक्षा भी मकतबों द्वारा दी जाती थी । साधारण वर्ग के बालकों की शिक्षा मकतब में ही होती थी, परन्तु, शहजादों और अमीरों के बालकों की शिक्षा घर पर ही दी जाती थी।
- प्रवेश – जब बालक की आयु चार वर्ष, चार माह और चार दिन हो जाती थी, उसी दिन बालक के सभी सम्बन्धी जन एकत्रित होते थे और बालक को नवीन वस्त्र पहनाये जाते । तत्पश्चात् बालक के समाने लिपि व कुरान की आयतों को मौलवी द्वारा पढ़ा जाता था और बालक उसे दुहराता था । दुहराने में असमर्थ होने पर बालक द्वारा केवल बिस्मिल्ला कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। यहीं से बालक का शिक्षा प्राप्त करना शुरू हो जाता था और बालक मकतब में जाना प्रारंभ कर देता था। मकतबों में बालकों के प्रवेश की इस विशेष विधि को ‘बिस्मिल्ला खानी संस्कार’ कहा जाता था ।
- पाठ्यक्रम — मकतबों में शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत छात्रों को पढ़ना-लिखना, साधारण गणित, पत्र-व्यवहार व फारसी की शिक्षा प्रदान करके उनमें जीविकोपार्जन की क्षमता विकसित की जाती थीं। कुरान को कण्ठस्थ कराकर इस्लाम धर्म का ज्ञान देकर उनमें धार्मिक तथा नैतिक आचरण सम्बन्धी प्रवृत्ति विकसित की जाती थी । उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
- शिक्षण विधि — मकतबों की शिक्षण विधि मौखिक थी । रटने पर अधिक बल दिया जाता था। सभी को कक्षा में उच्च स्तर में एक साथ बोलकर रटने को कहा जाता था। बालकों को नया पाठ तभी पढ़ाया जाता था, जब वे पिछला पाठ रटकर कण्ठस्थ कर लेते थे ।
- अन्य व्यवस्थाएँ– मकतबों में शिक्षण कार्य प्रातःकाल तथा सायं काल में होता था । दोपहर में बालकों को अवकाश रहता था । शिक्षा निःशुल्क थी और शिक्षण को सबसे पुनीत कार्य माना जाता था । शिक्षकों की व्यवस्था राज्य तथा धनी लोगों द्वारा की जाती थी ।
उच्च शिक्षा — बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों द्वारा दी जाती थी । मदरसे भी प्रायः किसी मस्जिद से जुड़े होते थे । मदरसा शब्द अरबी भाषा के ‘दरस’ शब्द से सम्बन्धित है, जिसका अभिप्राय है— भाषण देना । अतः मदरसा वह स्थान विशेष है, जहाँ भाषण दिए जाते हैं।
- प्रवेश – मकतब की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त छात्र मदरसे में प्रवेश लेते थे । मदरसे में प्रवेश हेतु कोई विशेष रस्म पूरी नहीं की जाती थी ।
- पाठ्यक्रम – मदरसों का पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत था । इनमें अध्ययन की अवधि 10 से 12 वर्ष की थी। मदरसों के पाठ्यक्रम में दो प्रकार के विषय पढ़ाने की व्यवस्था थी— धार्मिक तथा लौकिक ।
धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान का विस्तृत अध्ययन–इसके अन्तर्गत मोहम्मद साहब की परम्पराएँ, इस्लाम का इतिहास तथा इस्लामी कानून का अध्ययन कराया जाता था। लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अरबी व फारसी भाषा, उनका व्याकरण व साहित्य पढ़ाया जाता था । इसके अलावा तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कृषि, यूनानी चिकित्सा पद्धति “आदि व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कालान्तर में, अकबर ने शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने हेतु पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कराये थे तथा हिन्दू धर्म, दर्शन एवं साहित्य को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिलाया था ।
- शिक्षण विधि – मदरसों में किसी विशेष शिक्षण विधि का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश शिक्षण मौखिक रूप से होता था तथा रटने की पर विशेष बल दिया जाता था । शिक्षक अध्यापन के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद विधियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। छात्रों को स्वाध्याय विधि से ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता था । संगीत, चिकित्सा व हस्तकला जैसे विषयों के लिए भी प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई थी ।
- गुरु-शिष्य सम्बन्ध एवं अनुशासन- मदरसों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध व घनिष्ठ थे । शिष्य गुरुओं को सम्मान देते थे और सेवा करते थे। गुरु भी अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। छात्रावासों वाले मदरसों में गुरु और शिष्य साथ-साथ रहते थे ।
मुस्लिम काल में छात्र अत्यधिक अनुशासन में रहते थे। दैनिक पाठ याद न करने पर, झूठ बोलने पर अनैतिक आचरण करने पर अध्यापक अपनी इच्छानुसार छात्रों को दण्डित करतें थे। साथ ही, अनुशासित, योग, कुशल तथा चरित्रवान छात्रों को पारितोषिक देने का भी रिवाज था। उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती थी । परन्तु, मुस्लिम काल के अंतिम वर्षों में अध्यापक-छात्र सम्बन्धों की घनिष्ठता में कमी तथा छात्रों में अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर होने लगी थी ।
- वित्त व्यवस्था – मदरसों की समस्त आर्थिक व्यवस्था वैयक्तिक प्रबन्ध समितियों और धनी व्यक्तियों द्वारा की जाती थी। यह आर्थिक सहायता शासन एवं धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कार्य हेतु करते थे। इस प्रकार मदरसों की वित्त व्यवस्था का दायित्व राज्य नहीं था, क्योंकि, उस समय शिक्षा के लिए राज्य द्वारा अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।
- छात्रावास – चूँकि मदरसों से दूर-दूर के छात्र अध्ययन करने आते थे, इसलिए अधिकांश मदरसों के साथ छात्रावास संलग्न थे। छात्रावासों में छात्रों की जीवन अधिक सुविधाजनक था। अभिभावकों द्वारा अपने बालकों के लिए सभी सुविधायें जुटा दी जाती थी।
- परीक्षा प्रणाली- मुस्लिम काल तक किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी । कक्षोन्नति के लिए छात्र के सम्पूर्ण वर्ष के कृत कार्य के आधार पर शिक्षक अपने विवेक से छात्र को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की दे देता था। छात्रों द्वारा असाधारण ज्ञान व योग्यता का प्रदर्शन करने पर छात्रों का अध्यापकों द्वारा कामिल, आमिल, फाजिल आदि उपाधियाँ दी जाती थी ।
विशिष्ट शिक्षाएँ :
- स्त्री शिक्षा- मध्यकाल में पर्दा -प्रथा का प्रचलन अधिक था। इसलिए इस काल में स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। छोटी उम्र की लड़कियाँ नजदीक के मकतब में जाकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। मध्यम एवं उच्च वर्ग के द्वारा अपने घरों में ही बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः स्पष्ट है कि मुस्लिम काल में नारी शिक्षा का अभाव था ।
- सैनिक शिक्षा- मध्यकालीन शिक्षा में सैनिक शिक्षा पर काफी बल दिया गया, क्योंकि सभी मुस्लिम शासक भारत में अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा रखते थे । इसलिए राजकुमारों को युद्धकला में दक्ष बनाने के साथ-साथ सेना का संगठन, संचालन, हथियार चलाना, दुर्गों का घेराव, घोड़ों एवं हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु यह शिक्षा अनौपचारिक रूप में थी ।
- चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- मुस्लिम काल में चिकित्साशास्त्र का अच्छा विकास हुआ | आगरा और रामपुर का मदरसा, चिकित्सा शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था । चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने हेतु चिकित्साशास्त्र के संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया गया था ।
- ललित कलाओं एवं हस्तकलाओं की शिक्षा- प्रायः मुस्लिम शासक विलासप्रेमी एवं सौन्दर्य प्रेमी थे। अपने महलों तथा दरबारों की शोभा बढ़ाने के लिए अपार धन व्यय करते थे। इसलिए इस काल में अनेक ललित कलाओं और हस्त कलाओं की विशेष उन्नति हुई। इनम नृत्य, संगती, चित्रकला, वास्तुकला, हाथी दाँत का काम, रेशम का काम, मखमल बनाना, आभूषण निर्माण आदि प्रमुख थे ।
- शिक्षा केन्द्र – मध्यकाल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा, लाहौर, जालन्धर, अजमेर, गुजरात, अहमदनगर, गोलकुण्डा, हैदराबाद, बीजापुर, जौनपुर, लखनऊ, रामपुर, फिरोजाबाद आदि प्रमुख थे ।
मुस्लिम कालीन शिक्षा के उद्देश्य- मुस्लिम काल में शिक्षा के उद्देश्य, वैदिक कालीन एवं बौद्धिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों से बिल्कुल भिन्न थे। इस काल में एक नई संस्कृति का उदय हुआ था। अतएव मुस्लिम कालीन शिक्षा के अद्योलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
- इस्लाम धर्म का प्रचार करना – धर्म का प्रचार करना मुसलमानों में धार्मिक कार्य माना जाता है। मुसलमान शासकों ने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। इसके लिए शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण उतना ही पवित्र माना गया, जितना मस्जिदों का निर्माण । इसी भावना से अनुप्रमाणित होकर अधिकांश मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन मंदिरों, विद्यालयों व अन्य शिक्षा-केन्द्रों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदें, मकतब और मदरसों का निर्माण कराया ।
- मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना – मुस्लिम श्रेष्ठता स्थापित करने हेतु मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति एवं आदर्शों की महत्ता का इतना व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया, जिससे हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर ले | वे ऐसा नागरिक तैयार करना चाहते थे, जो मुस्लिम शासन का विरोध न कर सके ।
- सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति – मुसलमान सांसारिक वैभव तथा ऐश्वर्य को अधिक महत्त्व देते थे। मुस्लिम संस्कृति में परलोक पर विश्वास नहीं किया जाता है। इसी कारण इस काल में शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से तैयार करना था कि वे भावी जीवन को सफल बना सकें ।
- मुसलमानों में ज्ञान का प्रयास करना – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना था । इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने प्रत्येक सच्चे मुसलमान को ज्ञान प्राप्त करने का संदेश दिया था, क्योंकि ज्ञान अमृत है, जो इस्लाम के बन्दों को मुक्ति दिलाता है। ज्ञान के बिना धर्म-अधर्म तथा उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर पाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञानार्जन आवश्यक है।
- विशिष्ट नैतिकता का समावेश – चूँकि मुस्लिम शासक अपनी विशिष्ट नैतिकता एवं सांस्कृतिक नैतिकता के साथ भारत आये थे और वे उसे भारतीयों में भी प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुरूप व्यक्तियों में विशिष्ट नैतिकता का प्रचार करना था।
- धार्मिक कट्टरता का समावेश – मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता का समावेश करने हेतु मकतब और मदरसे अधिकांशतः मस्जिदों के निकट या उनके एक हिस्से में ही खोले गये थे ताकि छात्र अन्य व्यक्तियों के साथ-साथ नमाज पढ़े और धार्मिक भावना से प्रेरित हो सकें ।
मध्यकालीन शिक्षा की विशेषताएँ- मध्यकालीन शिक्षा के विविध पहलूओं पर ध्यान देने पर उसकी अद्योलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- चरित्र-निर्माण– इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक था। चरित्रवान छात्रों को राज्य की ओर से सम्मानित भी किया जाता था ।
- व्यावहारिकता – इस्लाम धर्म की शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर जीवन के लिए होती थी। इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य था कि छात्र व्यावहारिक जीवन में जीविकोपार्जन के सुयोग्य बन सकें। इसके लिए विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान छात्रों को कराया जाता था।
- धार्मिक व लौकिक शिक्षा का समन्वय – मध्यकालीन शिक्षा धर्म प्रधान होते हुए भी इनमें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का समन्वय मिलता है। एक तरफ धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी तो दूसरी तरफ ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु लौकिक शिक्षा प्राप्त करने पर विशेष बल दिया गया था।
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा- मध्यकाल में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके साथ छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी प्रायः निःशुल्क दी जाती थी । प्रत्येक मुसलमान बालक के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था।
- व्यक्तिगत सम्पर्क पर जोर- मध्यकाल में गुरु-शिष्य के मध्य निकटतम सम्पर्क था। शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जानता था। वह प्रत्येक छात्र को उसकी रूचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा देता था ।
- कला-कौशल का विकास – मध्यकाल के वास्तुकला का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। लाल किला, ताजमहल, जामा मस्जिद और बुलंद दरवाजा उस युग के वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इस काल में भारत में संगीत, नृत्य और अन्य ललितकलाओं व हस्त कलाओं का भी अधिक विकास हुआ था ।
- साहित्य और इतिहास का विकास – मध्यकाल में अनेक मौलिक ग्रंथों में रचना हुई। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि का फारसी में अनुवाद हुआ। भारत में इतिहास का क्रमबद्ध लेखन, मध्यकाल से ही प्रारंभ हुआ था। अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अनेक विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों को संरक्षण देकर साहित्य सृजन एवं इतिहास लेखन के लिए प्रोत्साहित किया था ।
मध्यकालीन शिक्षा के दोष- मध्यकालीन शिक्षा के अद्योलिखित दोष दृष्टिगोचर होते हैं –
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य दोष स्त्री शिक्षा की अवहेलना है। क्योंकि मुस्लिम समाज अथवा राज्य की ओर से स्त्रियों की शिक्षा के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं गई की थी । अल्प आयु की लड़कियाँ मकतबों में जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। जब वे बड़ी हो जाती थीं या प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर लेती थीं, तब उन्हें पढ़ने से रोक दिया जाता था । उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं थी। इसके लिए सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास और अज्ञानता प्रमुख करण थे। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग द्वारा अपने घरों में और शासकों द्वारा अपने महलों में बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
- लोकभाषाओं की उपेक्षा- लोकभाषाओं की उपेक्षा करना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष है क्योंकि मध्यकाल में फारसी शिक्षा का माध्यम राजभाषा थी। इसके अलावा फारसी का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही राजपदों पर नियुक्त किया जाता था। इससे लोकभाषाओं पर केवल ध्यान ही नहीं दिया गया, वरन् उनकी उपेक्षा भी की गई।
- जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा है क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा केवल इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उपलब्ध थी । अतः जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी । धार्मिक कट्टरता के कारण भी अधिकांश हिन्दू जनता इससे अलग रही। शिक्षा का माध्यम फारसी होने के कारण भी जनसाधारण इससे लाभान्वित नहीं हो सका था ।
- आध्यात्मिकता का अभाव- शिक्षा में आध्यात्मिकता का अभाव मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि मध्यकाल में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना और छात्रों में धार्मिक कट्टूरता की भावना की समावेश करना था। इससे इस काल में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सका था ।
- कठोर शारीरिक दण्ड – कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाना मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों द्वारा पाठ को कंठस्थ न करने या अपराध करने पर उन्हें बेंत, पैर, घुसों आदि से पीटा जाता था अथवा मुर्गा बना दिया जाता था। इससे छात्र मकतब या मदरसों में पढ़ने के लिए जाने से कतराते थे ।
- शिक्षा में स्थिरता का अभाव – मध्यकालीन शिक्षा का प्रमुख दोष शिक्षा व्यवस्था में अस्थिरता था। इसका कारण यह था कि कुछ मुस्लिम शासक अधिक कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे और कुछ उदार प्रवृत्ति के। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा नीति पर भी पड़ा था। इसीलिए किसी शासक के काल में शिक्षा का विकास प्रगति हुई और किसी के शासन काल में शिक्षा अपेक्षित रही। इसके अलावा मुस्लिम शासन सदैव संघर्ष एवं विप्लव के कारण विविध उतार-चढ़ावों से भी गुजरता रहा । अतः शिक्षा नीति में अस्थिरता और अनिश्चितता मुस्लिम शासकों की शिक्षा नीति का परिणाम थी । इस सम्बन्ध में केई ने लिखा- “शिक्षा का अस्थिर और अनिश्चित चरित्र (स्वरूप) व्यापक रूप से निरंकुश शासन का परिणाम था ।”
- नेतृत्व के गुणों का विकास करने में विफल – मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था का मुख्य असफलता थी कि यह अपने समर्थकों को इस योग्य बनाने में सफल नहीं पाई गई कि वै उचित परीक्षा एवं व्यावहारिक निर्णय की आदत की सृजन कर सके। अतः यह शिक्षा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में भी असफल रही ।
- छात्रों का विलासप्रिय जीवन- मध्यकालीन भारत में शिक्षा में यह दोष आ गया था कि अधिकांश छात्र विलासी जीवन व्यतीत करने लगे थे । इसका कारण यह था कि उन्हें छात्रावासों में ही सुखद जीवन की सभी सुविधाएँ सुलभ करा दी गई थीं। इससे उनमें विद्यार्थीत्व के लक्षणों का अभाव हो गया था ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधि- शिक्षण पद्धति का दोषपूर्ण होना भी मध्यकालीन शिक्षा का अन्य दोष था क्योंकि छात्रों को रटने पर अधिक बल दिया जाता था । इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता था और न ही उनमें चिंतन, मनन एवं तर्क करने की क्षमता उत्पन्न हो पाती थी ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव – चूँकि मध्यकालीन शिक्षा पद्धति में बहुत-सी कमियाँ थीं, इसलिए वह व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकीं । फिर भी मुस्लिम काल की शिक्षा में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में लागू किया जा सकता है। धार्मिक व लौकिक (सांसारिक) शिक्षा का समन्वय, शिक्षक एवं छात्र के मधुर सम्बन्ध, चरित्र निर्माण पर बल, व्यावसायिक शिक्षा के प्रशिक्षण पर बल आदि को वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित करते हुए शिक्षा को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। वर्तमान में उत्पन्न होने वाली शिक्षा के क्षेत्र की समस्याओं को इनके माध्यम से हल किया जा सकता है। इस प्रकार मध्यकालीन शिक्षा की कुछ अच्छाइयों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित कर इसे और अधिक प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जा सकता है।