भारत में वैदिक काल शिक्षा

भारत में वैदिक काल में प्रचलित शिक्षा के दोष

   प्राचीन युग में ‘शिक्षा’ को न तो पुस्तकीय ज्ञान का पर्यायवाची माना गया और न जीविकोपार्जन का साधन । इसके विषय में, शिक्षा को वह प्रकाश माना गया है, जो व्यक्ति को अपना सर्वांगीण विकास करने, उत्तम जीवन व्यतीत करने और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देती थी। दूसरों शब्दों में, शिक्षा को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति को पथ प्रदर्शित करने वाला प्रकाश माना गया था । इस कथन की पुष्टि में डॉ० एस॰एस॰ अल्तेकर के निम्नांकित शब्द उल्लेखनीय हैं, “वैदिक युग से आज तक शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा, प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है । “

    ब्राह्मणीय शिक्षा-प्रणाली अपने जिन दोषों के कारण भारतीयों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में विफल हुई और उसका पतन आरंभ हुआ, उनका वर्णन द्रष्टव्य है-

1 . लोकभाषाओं की उपेक्षा – प्राचीन भारतीय शिक्षा में केवल संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन पर सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित था । फलतः लोकभाषाओं की उपेक्षा हुई और उनकी प्रगति नहीं हो सकी।

2 . धर्म-निरपेक्ष विषयों की उपेक्षा – प्राचीन भारतीय शिक्षा में धर्म का आधारभूत स्थान था और सम्पूर्ण शिक्षा उससे सम्बद्ध थी । फलस्वरूप, धर्म-निरपेक्ष विषयों की बहुत सीमा तक उपेक्षा हुई । अतः उनका पर्याप्त विकास नहीं हुआ ।

3 . शूद्रों की शिक्षा की उपेक्षा – प्राचीन भारत में शूद्रों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था । अतः प्राचीन भारतीय शिक्षा के द्वार उनके लिए बन्द थे । इस प्रकार उनकी शिक्षा की उपेक्षा की गई, वरन् उनको शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित रखकर उनके प्रति घोर अन्याय किया गया ।

4 . जनसाधारण की शिक्षा की उपेक्षा – प्राचीन भारतीय शिक्षा- प्रणाली ने जनसाधारण की शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा की। इस सम्बन्ध में डॉ० अल्तेकर ने लिखा है, “संभवतः संस्कृत पर अपना ध्यान केन्द्रित रखने और लोकभाषाओं की उपेक्षा करने के कारण हिन्दू-शिक्षा प्रणाली, जनसाधारण की शिक्षा का विकास न कर सकी।”

5 . स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा प्राचीन भारत में पुरुषों के सामन स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। किन्तु, बालकों की शिक्षा के समान बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था न करके स्त्री-शिक्षा की पर्याप्त मात्रा में उपेक्षा की गई। इस संदर्भ में डॉ० पी० एन० प्रभु ने लिखा है, “ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू-शिक्षा योजना का निर्माण केवल भारत के पुत्रों के लिए किया गया था। इस योजना में भारत की पुत्रियों के लिए कोई स्थान नहीं जान पड़ता है।”

6 . सांसारिक जीवन की उपेक्षा शिक्षाशास्त्रियों के विचारानुसार, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य—व्यक्ति को पूर्ण जीवन के लिए तैयार करना है। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक-दोनों जीवन के लिए तैयार किया जाना चाहिए । किन्तु जैसा कि डॉ॰ एफ० ई० केई ने लिखा है- “ब्राह्मणीय शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक कर्त्तव्यों और उसके लिए व्यक्ति को तैयार करने के प्रति घृणा की प्रवृत्ति थी।”

      इस प्रवृत्ति का परिणाम यह हुआ कि लौकिक पक्ष की उपेक्षा करके आध्यात्मिक पक्ष को महत्त्व दिया गया । फलस्वरूप, प्राचीन युग के व्यक्ति संसार एवं सांसारिक जीवन को असार मानने लगे एवं उसके प्रति उदासीन हो गये । अतः इस युग में व्यक्तियों की लौकिक प्रगति का मार्ग बहुत सीमा तक अवरुद्ध हो गया ।

7 . विचार – स्वातन्त्र्य का अभाव – प्राचीन भारतीय शिक्षा में धर्म को अत्यधिक महत्त्व दिए जाने के कारण व्यक्तियों में यह प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई कि धर्मशास्त्रों में लिखी हुई सब बातें पूर्णतया सत्य हैं और उन्होंने जिन बातों को असत्य बताया है, वे कदापि सत्य नहीं हो सकती हैं । इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप भारतीय समाज में अनेक अंधविश्वासों और रूढ़ियावादिताओं का प्रवेश हुआ ।

8 . हस्तकार्य व शारीरिक श्रम के प्रति घृणा – प्राचीन भारतीय शिक्षा में धार्मिक शिक्षा की तुलना में लौकिक शिक्षा का स्थान बहुत निम्न था । फलस्वरूप, अध्ययन- केन्द्रों में लौकिक शिक्षा से संबंधित हस्तकार्यों की शिक्षा को कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ। अतः उच्च वर्गों के छात्रों का, जो इन अध्ययन केन्द्रों में शिक्षा ग्रहण करते थे, इन कार्यों से कोई सम्पर्क नहीं हुआ। ये कार्य निम्न वर्गों तक ही सीमित रहे, जिनको इनकी शिक्षा अपने परिवारों में प्राप्त होती थी । इन वर्गों के व्यक्तियों को निम्न समझा जाता था । अतः उनके द्वारा किये जाने वाले हस्तकार्यों और शारीरिक श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा ।

9 . धर्म को अत्यधिक महत्त्व प्राचीन भारतीय शिक्षा में धर्म को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था । शिक्षा की सम्पूर्ण संरचना धार्मिक आदर्शों से सुसज्जित थी । इन्हीं आदर्शों के अनुसार शिक्षा के विषयों, उद्देश्यों और पाठ्यक्रमों को निर्धारित किया गया था। छात्रों के समय का अधिकांश भाग धर्मशास्त्रों के अध्ययन और कर्मकाण्डों के सम्पादन में व्यतीत होता था । उनको निष्काम कर्म करने और अपनी इच्छाओं का दमन करने का उपदेश दिया जाता था । डॉ० एफ के अनुसार, “इस प्रकार की शिक्षा ने उच्च आदर्शों का तो समावेश किया, किन्तु, शिक्षा की प्रगति में योग नहीं दिया । “

10 . नवीन धर्मों का आविर्भावडॉ० एम० एन० मुखर्जी का विचार है, लगभग पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक शिक्षा अधिकांश रूप में ब्राह्मणों तक ही सीमित रह गई थी और शिक्षा के व्यवसाय पर उनका एकमात्र अधिकार था। इस अधिकार को बनाए रखने के लिए, उन्होंने धर्म का सहारा लिया और उससे जटिलता को कूट-कूटकर भर दिया। इस जटिलता के परिणामस्वरूप धार्मिक कृत्यों और ब्राह्मणों द्वारा उनमें प्रयोग की जाने वाली संस्कृत भाषा का जनसाधारण के लिए कोई महत्त्व नहीं रह गया । वैदिक धर्म के प्रति जनसाधारण के इसी परिवर्तित दृष्टिकोण के कारण दो नवीन धर्मों का आविर्भाव हुआ— बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ।

    उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय शिक्षा में अनेक गंभीर दोष थे, जिनके कारण वह कालान्तर में समयानुकूल न रह गई और उसका ह्रास आरंभ हो गया। इन दोषों और इनके कारण होने वाले ह्रास को रोकने के विषय में डॉ० एफ० ई० केई ने निम्न विचार लेखबद्ध किया है

      “प्राचीन भारतीय शिक्षा में अनेक दोष थे। इस शिक्षा को नवीन गति प्रदान करने और रूपान्तरित करने के लिए किसी प्रकार के नव जीवन की आवश्यकता थी । “

आधुनिक शिक्षा द्वारा वैदिक शिक्षा के दोषों का निवारण

1 . आज शिक्षा विभिन्न भाषाओं के माध्यम से दी जाती है। शिक्षा के विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया रहा है।

2 . आज शिक्षा की व्यवस्था समाज के सभी वर्गों, जातियों के लिए समान रूप से की जाती है । निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था है। शिक्षा का अधिकार, अधि नियम व्यवहार में है ।

3 . आज शिक्षा की व्यवस्था समाज के सभी वर्गों के लिए समान है। जो लोग निर्धन हैं, उन्हें शिक्षा के लिए राज्य द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।

4 . शिक्षा में सांसारिक एवं आध्यत्मिक दोनों विषयों का समावेश किया जाता है।

5 . विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्णरूप से प्रदान की गयी है ।

6 . शिक्षा में हस्तकार्य एवं शारीरिक श्रम को पूर्ण स्थान दिया गया है।

इस प्रकार, आधुनिक शिक्षा वैदिककालीन शिक्षा के दोषों का निवारण करती है।

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