बौद्धकालीन शिक्षा अनेक बातों में ब्रह्मनीय शिक्षा से अलग हैं
चूँकि वैदिक काल में ज्ञान प्राप्ति हेतु शिक्षा का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना था। परन्तु, उत्तर वैदिक काल में यज्ञ, वहन आदि धार्मिक संस्कारों को पाठ्यक्रम में विशेष स्थान दिये जाने पर बल दिया गया, जिसके फलस्वरूप पुरोहितवाद का उदय हुआ तथा शिक्षा पर ब्राह्मणों का एकाधिकार हो गया । शिक्षा को कर्मकाण्ड से जोड़ दिया गया। इसके फलस्वरूप शूद्रों एवं नारी जाति की शिक्षा उपेक्षा की शिकार हो गई थी।
सामान्य जन परेशान थे। ऐसी परिस्थिति में, गौतम बुद्ध (563-483 ई०पू०) ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। बौद्ध धर्म व्यापक हिन्दू का एक विस्तृत रूप है । बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए बौद्ध मठों तथा विहारों की स्थापना की गयी थी। प्रारंभ में, इन मठों तथा विहार का एकमात्र उद्देश्य बौद्धों को धर्म की शिक्षा प्रदान करता था, परन्तु, कालान्तर में, सभी धर्मों के छात्रों को इन मठों या विहारों में शिक्षा दी जाने लगी थी। बौद्धकालीन शिक्षा काफी समय तक वैदिक शिक्षा के समान ही थी ।
बौद्ध कालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने का उपाय जानना था। निर्वाण से अभिप्राय उस स्थिति से था जिसमें व्यक्ति की समस्त लालसाएँ सामप्त हो जाती हैं। अर्थात् छात्रों को ऐसा आचरण सिखाना था, जिससे मस्तिष्क को स्थिरता व शान्ति प्राप्त हो सके। नालन्दा विहार 424 ई. से 1204 ई० तक बौद्धकालीन शिक्षा का गौरव था । बौद्ध कालीन शिक्षा ने जनमानस में शिक्षा के महत्त्व व माँग को बढ़ा दिया ।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था । सिद्धार्थ बचपन से ही बड़े विचारवान, दयावान और एकांतप्रिय थे। संसार के लोगों को कष्ट में देखकर उन्हें बहुत दुःख होता था । उनके पिता शुद्धोधन ने उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में ही यशोधरा नामक सुन्दर राजकुमारी के साथ कर दिया। उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई। उस पुत्र का नाम राहुल रखा गया ।
वे सैदव इस संसार की निस्सारता पर विचार करते रहते और सर्वविदित चार घटनाओं – एक वृद्ध, एक रोगी, एक मृतक और एक संन्यासी से उनका हृदय द्रवीभूत हो गया। एक अर्द्धरात्रि को अपनी पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़ वे घर से निकल पड़े । ‘गया’ नामक स्थान पर पीपल के वृक्ष (बोधि वृक्ष) के नीचे वे एक बार ध्यान मग्न हो गए और उन्हें वहीं ज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वे बुद्ध के नाम से विख्यात हो गया ।
बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था :
1 . शिक्षा संगठन – बौद्ध काल में शिक्षा का संगठन प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा के रूप में अलग-अलग था । प्राथमिक शिक्षा 8 वर्ष की अवस्था में प्रारंभ होती थी तथा 12 वर्ष तक चलती थी । प्रवेश के समय बालक बौद्ध धर्म तथा संघ की सदस्यता स्वीकार करता था । बालक को विहार (मठ) में रहना अनिवार्य होता था । यह शिक्षा निःशुल्क थी । उच्च शिक्षा 20 वर्ष की अवस्था में प्रारंभ होती थी तथा जीवन- पर्यन्त चलती थी। बाद में, जीवन-भर का बन्धन समाप्त कर दिया गया था, परन्तु, छात्र को विहार (मठ). में रहकर शिक्षा ग्रहण करना पड़ता था । बौद्ध केन्द्र के रूप में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला आदि प्रमुख थे ।
2 . शैक्षिक संस्थाओं की व्यवस्था – बौद्ध शिक्षा के प्रमुख संस्था विहार होते थे । इनका संचालन भिक्षुओं द्वारा तथा भिक्षुओं के लिए किया जाता था । विहारों का प्रशासन बौद्ध संघ के अन्तर्गत होता था । सर्वोच्च ज्ञानी भिक्षुक इनका प्रधान आचार्य होता था। प्रधानाचार्य के अधीन दो समितियाँ होती थीं— शैक्षणिक तथा प्रशासनिक । प्रवेश परीक्षा पाठ्यक्रम, छात्रावास, भोजन, चिकित्सा, पुस्तकालय तथा विभिन्न पाठ्य विषयों के पृथक्-पृथक् विभाग होते थे, जिनके पृथक्-पृथक् अध्यक्ष होते थे । प्रत्येक निर्णय मतदान द्वारा लिया जाता था । अर्थात् विहारों का प्रबन्ध जनतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित था ।
विहारों के संचालन का व्यय-भर उनके संस्थापकों तथा अन्य अनुयायियों द्वारा वहन किया जाता था । अधिकांश विहारो को दान में इतनी स्थायी सम्पत्ति दे दी जाती थी कि इसकी आय से विहार का व्यय सुविधापूर्वक चल सकता था । समय-समय पर उन्हें दान भी मिलता रहता था । प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क थी । उच्च शिक्षा में छात्रों के रहने-खाने का व्यय लिया जाता था । निर्धन छात्र अपनी सेवाएँ अर्पित करते थे । विहारों में एक समय में हजारो छात्र होते थे। इनमें बड़े-बड़े छात्रावास होते थे । परन्तु, एक शिक्षक के पास 10 या 15 से अधिक छात्र नहीं होते थे ।
3 . संस्कार– बौद्धकाल में शिक्षा सम्बन्धी दो संस्कार होते थे— पब्बज्जा तथा उपसम्पदा । पब्बज्जा का शाब्दिक अर्थ है बाहर जाना । शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रों का पब्बज्जा संस्कार होता था । पब्बज्जा भिक्षु के चरणों में माथा टेककर शरण लेता था, अर्थात् बालक ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, सघं शरणं गच्छामि, का उच्चारण करता था । पब्बा आठ साल के बाद दी जाती थी तथा इसके बाद उसे मठ में ही रहना होता था ।
उपसम्पदा संस्कार के नियम पब्बज्जा संस्कार की तरह ही होते थे । पब्बज्जा संस्कार के बारह वर्ष बाद अर्थात् 20 वर्ष की आयु में उपसम्पदा संस्कार होता था । इस संस्कार के बाद छात्रों को चार व्रत धारण करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी-वृक्ष के नीचे वास करना, पात्र में एकत्रित करके भोजन करना, माँगे हुए वस्त्र से शरीर ढँकना तथा औषधि रूप से गोमूत्र सेवन करना। इसके बाद वह विद्याध्ययन करता था ।
4 . दिनचर्या – बौद्ध काल में छात्रों की दिनचर्या बहुत कठिन थीं। छात्र भिक्षाटन करते थे तथा कड़ा अनुशासन में रहते थे। प्रातः काल शौच, दातून स्नान आदि के उपरान्त छात्र भोज की व्यवस्था करते थे । गुरु छात्रों को शिक्षा देते थे। छात्र प्रश्न करते थे तथा गुरु उन प्रश्नों का उत्तर उपदेश के रूप में देते थे।
बौद्ध दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य- बौद्ध दर्शन यह मानता है कि दुःखों का कारण अज्ञान है। बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य अज्ञान से मुक्ति दिलाना या निर्वाण प्राप्ति में सहायक होना है। बौद्ध मठों, विहारों में शिक्षा की प्रमुखता दी गई उसमें चरित्र निर्माण एवं नैतिक जीवन अपनाने का नियम लागू किया गया। इस प्रकार बौद्ध शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए गये हैं-
1 . नैतिक जीवन – बौद्ध मठों, विहारों व शिक्षा संस्थानों में आचार्य छात्रों के चारित्रिक विकास व नैतिक जीवन के विकास को प्रमुखता देते थे।
2 . व्यक्तित्व का विकास- बौद्ध शिक्षा संस्थानों में व्यक्तित्व के विकास पर बल दिया जाता था। शिक्षा का उद्देश्य आत्म-निर्भरता, आत्म-संयम, आत्म-सम्मान तथा विवेक आदि गुणों का विकास करना था ।
3 . संस्कृति का संरक्षण – बौद्ध दर्शन संस्कृति के सरंक्षण पर बहुत बल देती है। बौद्ध भिक्षु भगवान बुद्ध के उपदेशों को स्वयं के जीवन में उतारते थे तथा अन्य लोगों को भी शिक्षित किया करते थे ।
4 . सर्वांगीण विकास – बौद्ध दर्शन में छात्रों के चतुर्मखी विकास पर जोर दिया जाता है। छात्रों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और भौतिक-सभी पक्षों पर बल दिया जाता है। शारीरिक व्यायाम, बौद्धिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा व सांसारिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान छात्रों को दी जाती है।
शिक्षा का पाठ्यक्रम – बौद्ध दर्शन में अपने पाठ्यक्रम में दुःखवाद को प्राथमिकता दी है । इस दर्शन के अनुसार संसार में सब परिवर्तनशील है । अतः बौद्ध दर्शन में निम्नलिखिति पाठ्यक्रम पर जोर दिया गया है—
1 . बौद्ध साहित्य का अध्ययन ।
2 . सम्यक् रूप में जीविकोपार्जन करने की योग्यता ।
3 . बुद्ध व अन्य संतों के जीवन चरित्रों का अध्ययन ।
इसके साथ ही बौद्ध विहारों और मठों में निम्नलिखित पाँच प्रकार की विद्याओं का अध्ययन पाठ्यक्रम का विषय था-
1 .शब्द विद्या – इसमें शब्द- निर्माण, व्युत्पत्ति और व्याकरण का ज्ञान आता है
2 . शिल्पासन विद्या – इसके अंतर्गत विविध प्रकार के उद्योग एवं कलाएँ आती है।
3 . चिकित्सा विद्या- इसमें औषधि विज्ञान व शरीर विज्ञान आदि को समाहित किया गया है ।
4 . हेतु विद्या- इसमें तर्कशास्त्र का अध्ययन आता है।
5 . अध्यात्म विद्या – बौद्ध दर्शन तथा अन्य दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इसके अन्तर्गत आता है।
शिक्षण विधि – बौद्ध मठों, विहारों में शिक्षा प्रदान करने के लिए निम्नलिखित विधियों को प्रयोग में लाया जाता था—
1 . व्याख्यान विधि – बौद्ध शिक्षा संस्थानों में एक साथ अनेक शिष्यों को अध्यापक व्याख्यान देता था । इसके लिए अध्यापक को अपने विषय का पंडित होना नितांत आवश्यक था। इसमें अध्यापक पठित विषय-वस्तु की व्याख्या करता था और छात्रों की शंकाओं का समाधान अध्यापक द्वारा तब तक किया जाता था, जब तक छात्रों को विषय- वस्तु का पूर्ण ज्ञान न हो जाये ।
2. छोटे समूह में शिक्षा — इसमें अध्यापक 5-6 छात्रों को शिक्षा प्रदान करता था। पहले वह स्वयं विषय का पाठ करता था और छात्र श्रवण करते थे। तदुपरान्त छात्र स्वयं पाठ करते और अध्यापक उनकी त्रुटियों को संशोधित करता था । इस प्रकार, बारम्बार अभ्यास द्वारा शिक्षा दी जाती थी ।
3 . चर्चा – इस विधि में पठित विषय पर छात्रों द्वारा परस्पर चर्चा की जाती थी । वाद-विवाद विधि का प्रयोग भी शिक्षण विधि के अन्तर्गत प्रयोग किया जाता था। छात्र पहले व्यक्तिगत अध्ययन के रूप में तथ्यों को स्मरण कर उन्हें संचित करते थे, उस पर मनन करते थे, फिर चर्चा में शामिल होकर अपना विचार प्रकट करते थे ।
अध्यापक छात्र सम्बन्ध – बौद्ध दर्शन में दो प्रकार के अध्यापकों की संकल्पना की गई है— 1. आचार्य और 2. उपाध्याय । एक आचार्य के अधीन अनेक उपाध्याय होते हैं और उपाध्याय के पास छात्रों को दुःखों से मुक्त करना है।
अध्यापक का कार्य छात्र की पूर्व स्थिति को जानकर उसकी वैयक्तिक कुशलताओं के अनुसार अध्ययन-अध्यापन क्रिया का संयोजन कराना है, जिससे छात्र को उचित शिक्षा दी जा सके । बौद्धकालीन संघों व शिक्षा-केन्द्रों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बड़े मधुर, आध्यात्मिक और सम्मानीय होते थे । शिक्षार्थी अनुशासित होकर संघो, मठों व विहारों के नियमों का पालन करते थे । जहाँ गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य के लिए शिरोधार्य थीं, वहीं गुरु शिष्यों को पुत्रवत् स्नेह भी करते थे । शिष्य द्वारा नियमों का परिपालन न करने पर गुरु उसके प्रति अनुशासनात्मक कारवाई करता था ।
बौद्ध दर्शन का वर्तमान शिक्षा प्रणाली में योगदान – बौद्ध दर्शन व्यक्ति को नैतिकता की ओर ले जाते हैं, जिनकी आज शिक्षा में अत्यन्त आवश्यकता है। इस दर्शन में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को दुःखों से मुक्ति दिलाना है। बौद्ध पाठ्यक्रम में बौद्धिक दृष्टि से सभी विषयों को समाहित किया गया है। इसके साथ पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को भी व्यक्तित्त्व विकास के लिए आवश्यक माना गया है। बौद्ध शिक्षा में शिक्षकों के कार्य शिक्षा के क्षेत्र में आज भी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
यह दर्शन छात्रों में आज्ञापालन, विनयपूर्ण आचरण व गुरु के प्रति श्रद्धा आदि गुण की अभी अपेक्षा रखता है। शिक्षक से भी यह अपेक्षा की जाती है कि अपने विषय के ज्ञात हो । इस दर्शन में पाठ्यक्रम के साथ पाठ्येत्तर क्रियाएँ जैसे—व्यायाम, खेल-कूद, वाद-विवाद, संगोष्ठी, परिचर्या, भ्रमण, यात्रा व उत्सवों आदि का आयोजन भी शिक्षा के विषय थे, जिनका वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौद्धिक, शारीरिक आध्यत्मिक एवं व्यावहारिक सभी पक्षों के विकास हेतु आवश्यकता है ।
बौद्ध शिक्षा पद्धति की प्रमुख देन निम्नलिखित हैं –
- बौद्ध शिक्षा पद्धति में सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के बालकों को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने का आयोजन ।
- शिक्षा संस्थानों में प्रवेश सम्बन्धी न्यूनतम उम्र, नियमों और परीक्षा का आयोजन ।
- लौकिक और सामान्य विषयों की शिक्षा प्रदान करने का आयोजन ।
- सामान्य विद्यालयों का आयोजन ।
- माता-पिता एवं अभिभावकों के साथ रहने वाले बालकों के लिए शिक्षा की सुविधाओं का आयोजन ।
- सार्वजनिक प्राथमिक स्तरों पर अध्ययन की निश्चित अवधि का आयोजन ।
- शिक्षा के विभिन्न स्तरों का अध्ययन की निश्चित अवधि का आयोजन ।
- बहु- शिक्षक और सामूहिक शिक्षा प्रणालियों का आयोजन
- स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था ।
- लोकभाषाओं को प्रोत्साहन एवं शिक्षा का माध्यम बनाया गया।
- खेलकूद एवं शारीरिक व्यायाम का आयोजन ।
अतः यह स्पष्ट है कि हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का आधार वैदिक शिक्षा पद्धति में रख दी गई थी। लेकिन उसका पूर्ण ढाँचा; जैसे—केन्द्रीय शासन, विद्यालयी शिक्षा, सामूहिक शिक्षण, बहु-शिक्षण प्रणाली आदि बौद्ध शिक्षा पद्धति सृजित किया गया जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण देन है ।
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- बौद्धकालीन शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि भारत के इतिहास में ऐसे शिक्षा केन्द्र न तो पहले कभी थे और न ही कभी बाद में विकसित हो सके।
- बौद्ध शिक्षा केन्द्रों की व्यवस्था अति उत्तम थी । प्रधानाचार्य, शैक्षणिक तथा प्रशासनिक समितियाँ, विभागाध्यक्षों की व्यवस्था तथा निर्णय प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर आधारित होते थे ।
- बौद्ध विहारों में प्रवेश के लिए जाति-पाँति, ऊँच-नीच का बन्धन न होने के कारण सबके लिए अवसरों की समानता थीं ।
- बौद्धकाल में पुस्तकालयों की व्यवस्था भी उत्तम थी, जिनमें प्रत्येक धर्म, भाषा और विषय की पुस्तकें संग्रहित थीं ।
- इस काल में शिक्षण विधि में व्याख्यान और स्वाध्याय विधि को समावेश हो गया था।
- इस काल में स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षित करने हेतु उच्चतम शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी ।
- बौद्ध काल में व्यावसायिक शिक्षा की भी उत्तम प्रबन्ध था । इस काल में आयुर्वेद तथा शल्य क्रिया की विशेष उन्नति हुई थीं ।
बौद्धकालीन शिक्षा के दोष- बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे—
- विहारों का भ्रष्ट वातावरण- विहारों एवं मठों का संगठन तो पहले काफी अच्छा था। यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर आधारित था । परन्तु, कुछ समय बाद मठों के संगठन में शिथिलता आ गई । भिक्षु तथा भिक्षुणियों के परस्पर सम्पर्क से व्याभिचार प्रारंभ हो गया, जो बौद्ध धर्म के पतन का कारण बना।
- स्त्री शिक्षा की उपेक्षा- प्रारंभ में तो बौद्ध मठों में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति नहीं थी । परन्तु, बाद में इन्हें भी प्रवेश दिया जाने लगा। लेकिन इससे धनी एवं सम्पन्न परिवारों की स्त्रियाँ ही लाभान्वित हुईं। सामान्य वर्ग की स्त्रियों के लिए शिक्षा-व्यवस्था नहीं थी । बौद्ध भिक्षुणियों ने स्त्रियों या लड़कियों के शिक्षा के उत्तरदायित्व का निर्वाह दायित्वपूर्ण रूप से नहीं कर सकीं ।
- लौकिक जीवन की उपेक्षा- बौद्धकाल में बालक के आध्यात्मिक विकास पर केवल बल दिया जाता था । जीवन को मिथ्या तथा संसार को क्षणभंगुर मानने की शिक्षा दी जाती थी । निर्वाण प्राप्ति शिक्षा की अंतिम उद्देश्य था । बौद्ध शिक्षा में लौकिक जीवन की उपेक्षा की गयी ।
- हस्तकला एवं कृषि के प्रति घृणा – बौद्धकालीन शिक्षा में हस्तकला व शारीरिक श्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता था। इसके शारीरिक श्रम को तुच्छ समझा जाने लगा। कृषि कार्य की घोर उपेक्षा की गई।
- धार्मिक विचारों के प्रति कट्टरता – बौद्ध शिक्षा धर्म से जुड़ी थी। इस शिक्षा में बौद्ध धर्म के विचारों को बाहर की किसी बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। जनसामान्य को कट्टर बौद्ध धर्मावलम्बी बनाने का प्रयास किया जाता था, जो इसका प्रमुख दोष है।