प्राचीन भारत में अध्ययन के पाठ्यक्रम
प्राचीन भारत में शिक्षा के विभिन्न स्तर और पाठ्यक्रम – प्राचीन भारत में शिक्षा के दो स्तर देखने को मिलते हैं:
(1) प्राथमिक शिक्षा स्तर और (2) उच्च शिक्षा स्तर
शिक्षा के विभिन्न स्तरों की व्यवस्था और पाठ्यक्रम:
1 . प्राथमिक शिक्षा स्तर – आज की प्राथमिक शिक्षा और प्राचीन युग की प्राथमिक शिक्षा में अंतर था। आज की भाँति उस समय ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ अथवा गणित के आरंभिक सिद्धांत नहीं पढ़ाये जाते थे । सर्वप्रथम, उस समय बालकों और बालिकाओं को वैदिक सिद्धांत नहीं पढ़ाये जाते थे । सर्वप्रथम, उस समय बालकों और बालिकाओं को वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना सिखाया जाता था, इसके पश्चात् विद्यार्थी पढ़ना-लिखना सीखते थे और तदुपरान्त व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी, उस समय की प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे :
(अ) सामान्य अथवा प्रारंभिक भाषा विज्ञान,
(ब) प्रारंभिक व्याकरण,
(ग) प्रारंभिक छन्द शास्त्र,
(द) प्रारंभिक गणित ।
2 . उच्च शिक्षा स्तर – प्राचीन काल में आर्य लोग उच्च शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व देते थे । उनका विचार था कि उच्च शिक्षा के अभाव में आत्मोन्नति और आत्म-कल्याण संभव नहीं है। यह शिक्षा वास्तव में विशेष योग्यता की प्राप्ति थी ।वैदिक काल में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे— ऋग्वेद,यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, तर्कशास्त्र, ब्रह्म–विद्या, देव–विद्या, आचारशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, शिल्पशास्त्र एवं संगीतशास्त्र आदि ।
समाज के विकास के साथ ज्ञान के भंडार में अभिवृद्धि हुई। विभिन्न विद्याओं की अनेक शाखाएँ हो गईं। अतएव स्मृतियुगीन शिक्षा के पाठ्यक्रम में विषयों की संख्या और कुछ बढ़ा दी गई। अब उपर्युक्त विषयों के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक उपनिषद्, शिल्प, दर्शन, धर्मशास्त्र, दण्डनीति आदि विषय भी पढ़ाये जाने लगे ।
ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है, इसके अतिरिक्त उत्तर वैदिक काल में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, पशुपालन, आयुर्वेद, बीजगणित तथा ललितकला आदि की भी शिक्षा दी जाती थी।
सैनिक शिक्षा – क्षत्रियों के लिए सैनिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। इस शिक्षा के अन्तर्गत अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग व घोड़ों तथा रथों का प्रयोग आदि करने की शिक्षा दी जाती थी। इसके अतिरिक्त धनुष-बाण, गदा, ढोल, भाला-बर्छी आदि चलाने की भी शिक्षा दी जाती थी। राज्य सैनिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं करता था, परन्तु, सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात् राज्य की ओर से सैनिक शिक्षा का विधिवत् प्रबंध किया जाने लगा था ।
वास्तव में, प्राचीन काल में आर्यों , दस्युओं एवं द्रविड़ों के साथ निरन्तर संघर्ष होता रहता था। संभवतः इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सैनिक शिक्षा की घोषण की गई थी।
व्यावसायिक शिक्षा – प्राचीन काल में व्यावसायिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। सैनिक शिक्षा के अतिरिक्त वाणिज्य, आयुर्वेद शिक्षा तथा शल्य -क्रिया की शिक्षा दी जाती थी । चिकित्सा-सम्बन्धी शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्र में कुछ योग्यताएँ आवश्यक थीं।
उस समय प्रश्नोत्तर विधि भी प्रचलित थी। अथर्ववेद के कुछ सूत्रों से इस बात का स्पष्ट आभास मिलता है।
परीक्षा– आज जैसी परीक्षा प्रणाली प्राचीन काल में नहीं थी। जब गुरु का विश्वास हो जाता था कि उसके शिष्य ने विद्या में दक्षता प्राप्त कर ली है तो वह उसे दीक्षा देकर विदा कर देता था ।
उपाधि तथा प्रमाण-पत्र देने की कोई विशेष व्यवस्था न थी। कुछ विशेष स्थानों पर यह उपाधियाँ दी जाती थीं ।
स्त्री–शिक्षा – प्राचीन काल में भारत में स्त्रियों की शिक्षा की व्यवस्था थी। ऋग्वेद की अनेक संहिताओं की रचना नारियों द्वारा बताई जाती है। ये महान नारियाँ—उर्वशी, घोषा, सिकता, गार्गी, मैत्रेयी रोमश्म, अपाला, लोपामुद्रा आदि थीं। वास्तव में, उस समय स्त्री-शिक्षा और पुरुष – शिक्षा में कोई विशेष अंतर न था। अंतर था केवल पाठ्यक्रम में स्त्रियों को वेद, व्याकरण आदि के साथ संगीत, नृत्य आदि ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। स्त्री-शिक्षा का यह कार्यक्रम प्राचीन काल से लेकर 200 ई० पू० तक चलता रहा। परन्तु, इसके बाद समाज में स्त्रियों का महत्त्व कम होने के साथ-साथ उनकी शिक्षा का दीपक बुझता गया ।
समय के विकास साथ-साथ स्त्रियों की शिक्षा-व्यवस्था में कुछ अंतर आता गया । उनकी शिक्षा-व्यवस्था पुरुषों से अलग ही होने लगी। बौद्ध काल में महिलाओं को शिक्षा की सुविधा प्राप्त थी। आगे चलकर स्त्रियों की शिक्षा की व्यवस्था घर पर होने लगी।
विद्यालय– प्राचीन काल में निम्न प्रकार की शिक्षा-व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं
- गुरुकुल
- वैदिक विद्यालय
- चारण विद्यालय
- परिषद्
- परिब्राजकाचार्य
- वन – विद्यालय
- मंदिर विद्यालय
- मठ विद्यालय (यह बौद्ध युग का विद्यालय था )
- विद्यापीठ (यहाँ बौद्ध साहित्य के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाता था ।)
पाठशाला का समय और छुट्टियाँ – प्राचीन काल में विद्या का आरंभ ब्रह्म बेला अथवा प्रातःकाल से हो जाता था । यज्ञ इत्यादि करने के पश्चात् विद्यार्थी अध्ययन में लीन हो जाते थे । दिन का भोजन समाप्त करने पर विद्यार्थी और अध्यापक कुछ समय तक विश्राम करते थे । अपराह्न एवं सांयकाल में भी अध्ययन होता था ।
रात्रि के समय अध्ययन की कोई व्यवस्था नहीं थी। केवल तक्षशिला में रात्रि के समय कक्षाएँ लगती थीं, ऐसा कहा जाता है ।
उस समय छुट्टियाँ भी होती थीं। महीने में चार दिन छुट्टियाँ होती थीं अर्थात् अमावस्या, पूर्णमासी तथा दोनों पक्षों की अष्टमी को अध्ययन बन्द रहता था।
दीक्षांत – शिक्षा की सामाप्ति के पश्चात् समावर्तन संस्कार होता था । इस संस्कार के बाद ही विद्यार्थी स्नातक कहलाने का अधिकारी था । ‘स्नातक’ शब्द का अर्थ है – स्नान किया हुआ । दीक्षांत समारोह के अवसर पर छात्र का अभिषेक होता था । उस पर पवित्र जल गिराए जाते थे । इस प्रकार वह ज्ञानी बनकर व सर्वथा शुद्ध और पवित्र होकर आश्रम से निकलता था । आजकल ‘स्नातक’ शब्द ‘ग्रेजुएट’ शब्द का पर्याय बन गया है। संस्कार के समय आचार्य अपने शिष्य को कुछ उपदेश देते थे । इन उपदेशों का आश्रय लेकर नवयुवक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था और सामान्य गृहस्थ जीवन बिताना आरंभ कर देता था ।