उपनयन संस्कार , पब्बज्जा, बिस्मिल्लाह क्या हैं ?

 

  उपनयन संस्कार, पब्बज्जा, बिस्मिल्लाह

उपनयन संस्कार –

       वैदिक काल में बालक में संस्थागत शिक्षा की औपचारिक शुरुआत उपनयन संस्कार के द्वारा होती थी। उपनयन का आशय है- पास ले जाना अर्थात् बालक को औपचारिक शिक्षा प्रदान करने के लिए गुरु के पास ले जाना ही उपनयन संस्कार कहलाता है। इस संस्कार को सम्पन्न हो जाने के बाद बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था और ब्रह्मचारी कहलाने लगता था ।

     उपनयन बालक का द्वितीय जन्म कहलाता था क्योंकि तात्कालिक परिस्थिति में यह मान्यता थी कि माता-पिता बालक के शरीर को जन्म देते थे जिसे मात्र शारीरिक जन्म स्वीकार किया जा सकता है जबकि गुरु के आश्रम में उपनयन द्वारा दीक्षित होने के उपरान्त उसका आध्यात्मिक जीवन का शुभारंभ होता है तथा इस समयावधि में बालक की आत्मा एवं मस्तिष्क का विकास होता है। यही कारण है कि विद्यारंभ के इस उपनयन संस्कार को बालक का द्वितीय जन्म अथवा आध्यात्मिक जन्म भी कहकर सम्बोधित किया जाता है। यह संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के बालकों के लिए आवश्यक था। यही कारण है कि इन तीनों वर्णों को द्विज अर्थात् दो बार जन्म लेने वाला कहा गया है।

    डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार, “उपनयन संस्कार का आरंभ पूर्व ऐतिहासिक युग से माना जाता है। यह संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों के लिए अनिवार्य था। जिस प्रकार कोई व्यक्ति बिना कलमा’ के मुसलमान या बिना बपिस्मा’ के ईसाई नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्राचीन भारत में कोई बालक बिना उपनयन’ के वैदिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था।”

   द्विजों के उपनयन संस्कार की आयु एक समान नहीं थी । ब्राह्मण बालक सामान्यतः 8 वर्ष की आयु में वसंत ऋतु में उपनयन संस्कार कराते थे। क्षत्रिय बालकों का उपनयन संस्कार सामान्यतः 11 वर्ष की आयु में ग्रीष्म ऋतु में कराया जाता था जबकि वैश्य वर्ग के बालकों के लिए संस्कार सामान्यतः 12 वर्ष की आयु में शरद ऋतु में आयोजित किया जाता था।

    उपनयन संस्कार की अधिकतम आयु ब्राह्मण के लिए 16, क्षत्रिय के लिए 22 एवं वैश्य वर्णों के लिए 24 वर्ष सुनिश्चित की गयी थी । उपनयन की आयु का निर्धारण विभिन्न वर्णों की क्षमता, आवश्यकता एवं अभिवृत्ति अथवा व्यवसाय को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता था । ब्राह्मणों के जीव आदर्श सबसे उच्च होते थे तथा इसके लिए कठिन, व्यापक तथा दीर्घावधि तक चलायमान विस्तृत शिक्षा को ध्यानबद्ध करते हुए इनके लिए विद्यारंभ की आयु न्यूनतम रखी गयी थी ।

    क्षत्रियों की जीवन उद्देश्य शारीरिक बल तथा शक्तिवर्द्धन करना था। इस कारणवश इनके लिए प्रवेश की उम्र ब्राह्मणों से कुछ ज्यादा निर्धारित की गई, जबकि वैश्यों की जीवन लक्ष्य धनार्जन, वैभव व दीर्घायु की प्राप्ति होना था। इसलिए इनके प्रवेश की उम्र अन्य दो वर्णों से ज्यादा सुनिश्चित की गई। द्विजो के उपनयन के लिए निर्धारित भिन्न-भिन्न ऋतु का सम्बन्ध उनके स्वभाव से था ।

पब्बज्जा

   बौद्धकाल में जब बालक शैक्षिक उम्र धारण कर लेता था तो उसके शिक्षण का शुभारंभ पब्बजज्जा संस्कार द्वारा सम्पन्न होता था। बौद्ध ग्रंथ महावग्ग में इस संस्कार के विधान का विस्तृत विवेचन किया गया है। पब्बज्जा का शाब्दिक अर्थ है— बाहर जाना । अतः पब्बज्जा संस्स्कार का आशय है कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए घर से बाजार जाना। मठ का वरिष्ठ भिक्षु ही सामान्यतः इस संस्कार को सम्पन्न कराता था। इस संस्कार का सम्बन्ध मात्र उन बालकों से था, जिनके जीवन का लक्ष्य बौद्ध भिक्षु बनकर बौद्ध का प्रचार-प्रसार करना था। इस संस्कार से सम्पन्न होने की न्यूनतम आयु 8 वर्ष सुनिश्चित थी ।

   इस संस्कार के विषय में विनयपिटक में कहा गया है कि “विद्यार्थी अपने सिर के बाल मुड़वाता था, पीले कपड़े पहनता था, मठ के भिक्षुओं के चरणों में अपना माथा टेकता था और फिर पालथी मारक बैठ जाता था । उसे तीन बार कहना पड़ता था— बुद्धं शरणम् गच्छामि । धम्मं शरणम गच्छामि, संघ शरणम् गच्छामि ।” इसके उपरान्त शिक्षक, शिक्षार्थी को दस आदेश (दस सिक्खा पदानि) देता था, जो निम्नलिखित हैं-

  1. अहिंसा का पालन करना,
  2. शुद्ध आचरण करना,
  3. सत्य बोलना,
  4. सत् आहार लेना,
  5. मादक वस्तुओं का प्रयोग न करना,
  6. परनिन्दा न करना,
  7. श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग न करना,
  8. नृत्य एवं संगीत आदि से दूर रहना,
  9. पराई वस्तुओं पर लालच न करना,
  10. कीमती वस्तुओं (सोना, चाँदी, हीरा जवाहरात आदि) का दान न लेना ।

 बिस्मिल्लाह –

    जिस तरह वैदिक एवं बौद्ध शिक्षा प्रणाली में बालक की शिक्षा का शुभारंभ उपनयन एवं पब्बज्जा संस्कार द्वारा होता था, ठीक, उसी भाँति मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में शिक्षा शुरुआत बिस्मिल्लाह रस्म से होती थी। जब बालक चार वर्ष, चार माह, चार दिन की आयु पूर्ण कर लेता था तब उसे नया परिधान धारण कराकर मौलवी साहब के पास ले जाया जाता था जहाँ बालक को मौलवी द्वारा उच्चारित कुरान की कुछ आयतों का उच्चारण करना पड़ता था । यदि बालक उन आयतों का उच्चारण करने में असमर्थ होता था तो मात्र बिस्मिल्लाह’ शब्द कहलवाना ही पर्याप्त माना जाता था। इस प्रकार बालक की शिक्षा प्रारंभ होती थी ।

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