अठारहवीं शताब्दी के दौरान स्वदेशी शिक्षा या देशज शिक्षा
स्वेदशी शिक्षा या देशज शिक्षा से हमारा तात्पर्य 18वीं शताब्दी के दौरान भारत में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था से है। जब अंग्रेज भारत आए, उस समय भारत में शिक्षा की स्वदेशी प्रणाली से पढ़ाई होती है। उस समह हमारे यहाँ मुस्लिमों के लिए अनेक मकतब और मदरसा, हिन्दुओं के लिए पाठशाला तथा दक्षिण भारत में अग्रहार मौजूद थे, जिसमें बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था थी। ये सभी संस्थाएँ या स्थान अधिकतर एक व्यक्ति या शिक्षक द्वारा संचालित होते थे जिसमें अनेक कक्षाएँ होती थी। कभी-कभी इन संस्थानों में वरिष्ठ छात्र ही वर्ग- शिक्षक का कार्य करते थे तथा शिक्षण कार्य में शिक्षक की मदद भी करते थे। इन संस्थानों में निर्देश या पढ़ाई का माध्यम संस्कृत, बंगाली, हिन्दी, उर्दू, फारसी, तेलुगु, तमिल आदि भाषाएँ होती थी ।
इन संस्थानों की वित्तीय स्थिति सुदृढ़ नहीं थी जिसके कारण ये पतन की ओर अग्रसर थे। इन संस्थानों या स्कूलों के लिए मकान या भवन की कोई व्यवस्था नहीं थी। अधिकतर स्कूल मन्दिरों में, निजी जगहों या शेड में, पेड़ों के नीचे, शिक्षक के अपने घरों में आदि जगहों पर संचालित होते थे।
उस समय के नियम के अनुसार ये स्कूल किसी से भी जातिगत या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते थे तथा सभी बच्चों के लिए खुले थे जिनमे माता-पिता इन स्कूलों के खर्च का वहन कर सकते थे। अधिकतर शिक्षक ब्राह्मण थे और वे लाभ के लिए शिक्षण कार्य से नहीं जुड़े थे। शिक्षकों को प्रतिमाह पगार के रूप में 3 से 5 रुपये के बीच दी जाती थी ।
स्वदेशी स्कूलों के बच्चे विभिन्न समुदायों से आते थे। फिर भी, ऊँची जातियों के बच्चों की संख्या अधिक होती थी। इन स्वदेशी स्कूलों में पढ़ने-लिखने और अंकगणित के प्राथमिक सिद्धान्त या तत्त्व की पढ़ाई को याद कराया जाता था ताकि वे सभी प्रकार जोड़ों को दिमागी रूप से हल करने में सक्षम हो जाए। स्कूल के आवश्यक समान बहुत साधारण और भारी होते थे। ये स्वेदशी स्कूल प्रसार शिक्षा के प्रसार के लिए मुख्य एजेन्सी का कार्य करते थे ।
इन स्कूलों का आकार बहुत छोटा होता था । यहाँ बच्चों के नामांकन के लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं होती थी। साल में किसी भी समय बच्चा का दाखिला स्कूल में हो जाता था और उसे अपने गति से सिखना होता था। स्वेदशी स्कूलों का मुख्य गुण स्थानीय वातावरण से सामंजस्य स्थापित करना था। शिक्षकों में प्रशिक्षण की कमी के कारण स्कूल का पाठ्यक्रम बहुत छोटा होता था ।
19वीं शताबदी की शुरुआत में, शिक्षा की स्वदेशी प्रणाली तेजी से पतन की ओर उन्मुख होने लगी । ब्रिटिश सरकार ने स्वदेशी शिक्षा प्रणाली को बिल्कुल दबा दिया। धीरे-धीरे स्वेदशी शिक्षा प्रणाली भारत में बिल्कुल ही विलुप्त हो गई।