शिक्षण अधिगम प्रक्रिया क्या है

              शिक्षण अधिगम प्रक्रिया

 शिक्षण और अधिगम में घनिष्ठ संबंध  –   प्रभावी शिक्षण से अधिगम अधिक  सार्थक और व्यावहारिक होता है।

   शिक्षण को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री बर्टन ने कहा है, “शिक्षण सिखाने  के लिए प्रेरणा, पथ-प्रदर्शन, पथनिर्देशन और प्रोत्साहन है।”

 इसी सदर्भ में डमविल का कथन है, “शिक्षण का सरलतम अर्थ है कि शिक्षक जो  कुछ जानता  है, उसे विद्यार्थियों को बताता है।

एडमण्ड एमीडोन ने मतानुसार, “शिक्षण को अन्त:प्रक्रिया के रूप में लक्षित किया जाता  है जिसके अन्तर्गत कक्षा-कथन को शामिल किया जाता है, जो अध्यापक तथा विद्यार्थी के  बीच परिचालित होते हैं। कक्षा-कथन का सम्बन्ध अपेक्षित क्रियाओं में रहता है।”

बेल्टन के विचारों में, “शिक्षक को ज्ञान-सामग्री इस रूप में प्रस्तुत करनी चाहिए कि उनमें बास्तविक सम्बन्धों को ठीक प्रकार से जाना जा सके ।”

शिक्षण और अधिगम का सम्बन्ध –  शिक्षण का मुख्य कार्य अधिगम अर्थात् सीखने पर केन्द्रित होता है। दूसरे शब्दों में, जब शिक्षण होगा, तभी अधिगम होगा। अतः शिक्षण-प्रत्यय अधिगम के बिना कभी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। किन्तु बी०ओ० स्मिथ को यह मान्य नहीं। उनके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि शिक्षण द्वारा अधिगम उत्पन्न हो। वे शिक्षण और अधिगम को अलग-अलग मानते हैं।

वुडवर्थ ने अधिगम का अर्थ बताते हुए कहा है, “नया ज्ञान और अनुक्रियाओं को अर्जित करने की प्रक्रिया को सीखने की प्रक्रिया कहते है।” ।

स्किनर ने भी सीखने की विकासात्मक प्रवृत्ति के बारे में कहा है, “सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।”

एन.एल.गेज . के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान में शिक्षण केन्द्रीय-बिन्दु होना चाहिए । परन्त, केन्द्रीय बिन्दु अधिगम को ही माना जाता है । कक्षा की समस्याओं के समाधान के लिए केवल अधिगम के तत्त्वों के नियम का अध्ययन करके ही समाधान नहीं ढूँढा जा सकता। केवल उसी से शिक्षण में सुधार नहीं जा सकते ।”

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया  –    शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक अपने शिक्षण की अवधि में स्वयं कुछ सीखते रहते हैं। इस प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों सक्रिय रहते हैं तथा कक्षा (वर्ग) में शैक्षिक परिवेश बना रहता है।

शिक्षण-अधिगम के सिद्धांत —  शिक्षण और अधिगम में गहरा सम्बन्ध है और अधिगम या सीखना ही सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का केन्द्र बिन्दु है। शिक्षण-अधिगम का सामान्य उद्देश्य छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना और उनका सर्वांगीण विकास करना है-इसीलिए शिक्षण प्रक्रिया में उन क्रियाओं का आयोजन किया जाता है जो अधिगम के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सके। दूसरे शब्दों में, शिक्षण अधिगम को प्रोत्साहित करता है ।

 इस प्रकार, शिक्षण का प्रमुख कार्य अधिगम को प्रभावशाली बनाना है । बर्टन ने भी शिक्षण को अधिगम प्रक्रिया या सीखने की प्रक्रिया में कारक बताया है। इसलिए उत्तर अधिगम की उत्पत्ति के लिए शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित विभिन्न परिस्थितियों, कारकों, घटकों का नियोजन, आयोजन एवं क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू एवं प्रभावशाली रूप देने के लिए कुछ सिद्धांत बनाए गए हैं । सिद्धांतों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप से किया गया है

अधिगमकर्ता से सम्बन्धित सिद्धांत  –   शिक्षण एक त्रिध्रुवी प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक शिक्षण, विषयवस्तु तथा विद्यार्थी या अधिगमकर्ता होते हैं। इस त्रिधुवी शिक्षण-प्रक्रिया में अधिगमकर्त्ता का प्रमुख स्थान है क्योंकि शिक्षण प्रक्रिया द्वारा उसके व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ला कर उसका सर्वांगीण विकास करना होता है। इसलिए शिक्षण-अधिगम क्रिया के समय अधिगम क्रिया के समय अधिगमकर्ता अर्थात् छात्र से सम्बन्धित निम्न सिद्धांतों का अनुपालन आवश्यक है :

1 . व्यक्तिगत भिन्नताओं का सिद्धांत – यह तो सभी जानते है और मानते हैं कि कोई भा दो व्यक्ति एक समान नहीं होते। उनकी योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों में बहुत अधिक अन्तर होता है। इसलिए शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में संबसे बड़ी समस्या वैयक्तिक भिन्नता का होती है। इस समस्या का समाधान अध्यापक सरलता से कर सकता है । यदि वह समस्त शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के नियोजन. आयोजन तथा क्रियान्वयन करते समय छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं की ओर ध्यान दें।

2 . ‘छात्र केन्द्रितसिद्धान्त – अधिगम का प्रमुख उद्देश्य छात्र के व्यवहार में वांछित परिवर्तन  लाना होता है। इसलिए समस्त शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया छात्र केन्द्रित होनी चाहिए ।

इसका अर्थ है कि छात्रों की योग्यता, क्षमता आवश्यकता आदि को ध्यान मेंरखकर ही   शिक्षण-अधिगम क्रियाओं का आयोजन किया जाए।

3 . सक्रिय सहयोग लेने का सिद्धांत – शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दो पक्ष –शिक्षक और छात्र होते है। यह प्रक्रिया तभी सफल हो सकती है जब दोनों ही प्रक्रिया में सक्रीय  रहें। इसलिए अध्यापक छात्रों को सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए अभिप्रेरित करें।

 शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित सिद्धांत –   शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है। इसे रूप से सम्पन्न करने के लिए निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।

1 . नियोजन का सिद्धांत – किसी भी कार्य की सफलता का आधार नियोजन होता है। नियोजन करने के पूर्व क्या, क्यों और कैसे के प्रश्नों का उत्तर ढूँढा जाता है। क्या का सम्बन्ध पाठ्यवस्तु से होता है। यदि अध्यापक पाठ्यवस्तु का विश्लेषण कर उसे क्रमबाद्ध कर लेता है तो शिक्षण सरल हो जाता है ।

 क्यों का आशय उद्देश्य से होता है। यदि अध्यापक के उद्देश्य स्पष्ट होंगे तो वह सही दिशा में सरलता से बढ़ सकेगा। इसी प्रकार कैसे का सम्बन्ध शिक्षण नीतियों और युक्तियों से होता है।

2 . व्यूह रचनाओं एवं युक्तियों के चयन तथा उपयोग का सिद्धांत – समस्त शिक्षण प्रक्रिया में उद्देश्यों का निर्धारण तथा व्यूह रचनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यूह रचनाएँ प्रस्तावित उद्देश्यों को प्राप्त करने में अध्यापक तथा छात्रों की सहायता करती हैं । व्यूह रचनाओं की सफलता या प्रभावशीलता इनके चयन एवं उपयोग पर निर्भर होती है।

 इसलिए अध्यापक को बहुत ही सावधानी से व्यूह रचनाओं का चयन एवं प्रयोग करना चाहिए । अन्त में कहा जा सकता है कि निर्धारित शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अध्यापक को उपर्युक्त व्यूह रचनाओं का चयन एवं प्रयोग करना आवश्यक है।

3 . अधिगम परिस्थितियों से सम्बन्धित का सिद्धांत – अधिगम परिस्थितियों के अन्तर्गत वे परिस्थितियाँ आती हैं जिनके द्वारा छात्र अन्त:क्रिया के माध्यम से नवीन ज्ञान, कौशन तथा अभिवृत्ति अर्जित करता है। इस सिद्धांत का सफलतापूर्वक निर्माण एवं संचालन निम्नलिखित सिद्धांतों के अनुपालन से ही सम्भव है :

– अधिगम परिस्थिति की स्पष्टता एवं सार्थकता का सिद्धांत ।

– अधिगम संसाधनों के प्रभावी एवं उपयुक्त उपयोगिता की सिद्धांत ।

 – समाजोपयोगी एवं उत्पादक कार्य का सिद्धांत ।

4 . विषयवस्तु से सम्बन्धित सिद्धांत – शिक्षण प्रक्रिया अध्यापक और छात्र के मध्य सम्पन्न होती है। इसे ही अन्त:क्रिया कहा जाता है। इस अतः क्रिया का आधार पर एक विशेष प्रकार की विषय-वस्तु को माना जाता है। इससे सम्बन्धित चार सामान्य अनुसिद्धांत विशेष महत्त्व रखते हैं। इन अनुसिद्धांतों की चर्चा नीचे की गई है

(i) लघु एवं स्पष्ट विषय वस्तु का सिद्धांत —  विषय वस्तु लघु एवं स्पष्ट सोपानों में प्रस्तुत की जानी चाहिए, जिससे सीखने की प्रक्रिया में छात्र कम-से-कम अशुद्धियाँ कर विषय के बारे में जानकारी एवं अवबोध विकसित कर सके । इस अनुसिद्धांत की स्पष्ट झलक अभिक्रमिक सामग्री में देखी जा सकती है।

(iii) सह-सम्बन्ध का सिद्धांत –   सम्पूर्ण ज्ञान अपनी प्रकृति के अनुसार समन्वित एवं समग्र रूप में होता है। शिक्षण एवं अधिगम की सुविधा के लिए समस्त ज्ञान को पृथक इकाई के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शिक्षण-अधिगम को सरल एवं सार्थक बनाने के लिए एक विषय को दूसरे विषय से समन्वय करना आवश्यक हो जाता है। इसे ही सह-सम्बन्ध से जाना जाता है।

(ii) विषय को जीवन की परिस्थितियों से जोड़ने का सिद्धांत –   इस सिद्धांत का आशय है कि पढ़ाए जाने वाले विषय को कृत्रिम या बनावटी संदर्भो में न प्रस्तुत कर, वास्तविक जीवन से जोड़ कर छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से जोड़कर जो शिक्षण किया जाता है उसमें छात्र रुचि लेते हैं। जिसके फलस्वरूप अधिगम भी अधिक होता है और छात्रों में व्यावहारिक निपुणता भी आ जाती है।

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