रूचि
रुचि का प्रत्यय– हर व्यक्ति की कोई न कोई रुचि रुचियों अवश्य होती हैं | इन्हीं रुचियों के कारण वह किसी वस्तु, क्रिया आदि को पसंद करता है या उसे अधिमान देता है | शिक्षा के क्षेत्र में तो रुचि को ही केन्द्र बिन्दु माना गया है। हर व्यक्ति के अपने –अपने जीवन के उद्देश्य होते हैं। ये रुचियाँ कभी भी जन्मजात नहीं होती। जीवन कला में व्यक्ति की विभिन्न अनुभव प्राप्त होते हैं तथा इन्हीं अनुभवों के आधार पर उसकी रुचियों का विकास होता है।
रुचियों, दृष्टिकोण और चरित्र जन्मजात नहीं होते, बल्कि, व्यक्ति उन्हें अपनी विकास प्रक्रिया के दौरान अर्जित करता है इस प्रक्रिया में, परिपक्वता और अधिगम सक्रिय होते हैं रुचियाँ आयु के साथ-साथ बदलती रहती है। छोटे बच्चे में ये रुचियाँ बड़ी तीव्रता से बदलती है। लेकिन, बाद में ये रुचियाँ स्थिर हो जाती है।
रुचि का अर्थ– किसी भी व्यक्ति के निरन्तर व्यवहार के लिए उसकी रुचियाँ ही उत्तरदायी होती है। रुचि वह अभिप्रेरक शक्ति है जो एकाग्रता को पैदा करती है, स्थिा रखती है तथा उसे नियमित बनाती है।
मैक्डूगल के अनुसार, “रुचि एक व्यक्ति का स्थिर गुण है।
साहरी और टैलफोर्ड के अनुसार, “रुचि पदार्थ के प्रति अनुकूल व्यवहार है।
लैटिन भाषा में रुचि’ अंग्रेजी अनुवाद ‘इन्ट्रैस्ट’ का अर्थ ‘सम्बन्ध होना’ या ‘रुचि सरोकार होना है। अतः रुचि का अर्थ कि किसी वस्तु से सम्बन्ध का होना या सरोकार होना।
विलियम जेम्स के अनुसार, ‘चयनित जागरूकता या ध्यान है जो किसी के सम्पूर्ण अनुभवों में से अर्थ पैदा करता है।
बरडी के अनुसार, रुचि वे कारण है जो किसी व्यक्ति को किसी पदार्थ, व्यक्ति या क्रियाओं की ओर आकर्षित कते हैं या अनाकर्षित करते हैं।
स्ट्रांग ने रुचियों को पसंद कहा है।
मैक्डूगल ने कहा है कि, ‘रुचि छुपा हुआ ध्यान है और ध्यान किसी क्रिया में रुचि है।
बिनघंम के अनुसार, ‘रुचि एक अनुभव में विलीन होने और उसी प्रकार निरन्तर चलत रहने की एक प्रवृत्ति है। इस प्रकार विनघम के अनुसार सभी रुचियों प्रवृत्तियाँ ही होती है।
के . लोवल के अनुसार, ‘संक्षेप में रुचि किसी ठोस पदार्थ जैसे क्रिकेट, टिकट संग्रह या सुई कार्य के बारे में व्यक्तिनिष्ठ भावनाओं के समूह से बनी होती है और यह किसा प्रकार से प्रतिविशेष प्रकार के व्यवहार करने की प्रवृति है।
मनोविज्ञान के अपने शब्द कोष में इंगलिश और इंगलिश ने रुचि के कई अर्थ दिये हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार, ‘रुचि एक आवृत्ति या अवधानों का समूह है। दूसरे अर्थ अनुसार, रुचि ‘किसी वस्तु की ओर चयनित ध्यान देने की प्रवृत्ति है। इन्हीं के अनुसार एक अन्य अर्थ है, “एक ऐसी भावना जिसके बिना व्यक्ति कुछ भी सीखने के अयोग्य होता है |
इन्ही द्वरा अन्य अर्थ के अनुसार ‘रूचि वह आनन्दमय अनुभव है जो किसी कार्य के बिना किसी बाधा के लक्ष्य की ओर बढ़ने से होता है।
डगलस फ्रेयर के अनुसार, रुचियों के वस्तुएँ और क्रियाएँ है जो व्यक्ति में आनन्दमय अनुभयों को उत्तेजित करती है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, रूचि वह अभिप्रेरक शक्ति है जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या किया की ओर ध्यान देने के लिए मजबूर करती है अथवा यह एक प्रभावात्मक अनुभूति हैं जो स्वयं क्रिया द्वारा अभिप्रेरित होती है। दूसरे शब्दों में रुचि किसी क्रिया का कारण भी हो सकती है और उस क्रिया में भाग लेने का परिणाम हो सकता है।
बी .एन . झा . के अनुसार ‘रुचि वह स्थिति मानसिक संस्थान है जो चालू रखकर ध्यान को लगातार बनाये रखता है।
जे .पी .गिलफोर्ड ने रचि की इस प्रकार व्याख्या की है– ‘जब कोई व्यक्ति यह खोज निकालता है कि कुछ विशिष्ट पदार्थ और अनुक्रियाओं से प्रेरक संतुष्ट होते हैं, तब उस पदार्थ और अनुक्रियाओं में रुचि प्रदर्शित होती है। रुचियाँ ध्यान देने या कुछ उद्दीपन ढूढने या किन्हीं विशेष क्रियाओं में संलिप्त होने की ओर झुकाव होती है। इस प्रकार रुचि को हम भावात्मक दृष्टिकोण के रूप में प्रदर्शित कर सकते है।’ रुचि एक भावना है जो दोनों प्रकार की हो सकती है- कष्टदायक और आनन्दमय । इन दोनों प्रकार की भावनाओं के साथ अवधान प्रायः जुड़ा रहता है। जिस कार्य में हम रुचि लेते हैं उसकी ओर ध्यान भी रखते हैं। जिस कार्य की ओर हमारा ध्यान जाता है, आवश्यक नहीं कि उसमें हमारी रुचि भी हो। रुचि के बिना ध्यान अधिक समय तक नहीं लगाया जा सकता है।
रुचि‘ की विशेषताएँ‘-सभी रुचियों की कुछ विशेषताएँ हैं जो कि उपरोक्त परिभाषाओं के माध्यम से हमारे सामने आती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित है –
1 .रुचियाँ जन्मजात भी हो सकती हैं तथा इन्हें अर्जित भी किया जा सकता है
2. रुचियों का सम्बन्ध वर्तमान से होता है।
3 .रुचियाँ संवेगात्मक अभिवृत्तियाँ होती है।
4 .रुचियाँ भी प्रवृत्तियाँ ही है।
5 . अधिगम और रुचि में गहरा सम्बन्य होता है।
रुचि स्थायी नहीं होती ।प्रौढ़ावस्था में पहुंचते-पहुंचते इन रुचियों में व्यापक परिवर्तन होते रहते हैं तथा कुछ रुचियाँ आयु के साथ-साथ लुप्त हो जाती है।
रुचियाँ अवसरों और सामाजिक-मूल्यांकन का परिणाम है।
सुपर के अनुसार रुचियाँ वंशानुक्रमित अभिरुचियों तथा नालिका-विहिन कारकों में अन्तः क्रिया का परिणाम है।
रुचि और ध्यान को अलग करना असंभव है।
रुचि गुप्त ध्यान है तथा ध्यान रुचि का सक्रिय रूप है।
रुचियाँ हमारी आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा लक्ष्यों से जुड़ी होती है।
रुचियों के प्रकार– रूचियों को मुख्यत: निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता हैं ।-
1 जन्मजात रुचियाँ– जन्मजात रचियों को प्राकृतिक रुचियों का नाम भी दिया गया है। इन रुचियों का आधार मूल-प्रवृत्तियाँ होती है, जैसे गाने में रुचि, बच्चों की खेल मे रुचि, भूखे व्यक्ति की भोजन में रुचि, माँ की अपनी संतान में रुचि।
2 अर्जित रुचियाँ– अर्जित रुचियाँ वे होती हैं जो आदतो, मनोभावों, हीन भावों आचरण तथा आदर्शों द्वारा ग्रहण की जाती है। इस प्रकार की रुचियाँ प्राकृतिक अथवा जन्मदात रुचियों द्वारा उत्पन्न होती हैं। इस रुचि के कारण व्यक्ति किसी विशिष्ट कार्य में कौशल अर्जित व्यक्ति कहलाता है। जैसे, मेकैनिक हाथ लगाकर ही बता देता है कि मशीन में त्रुटि कहाँ पर है?
3 गुणात्मक दृष्टि से रुचियाँ– गुणात्मक दृष्टि से रुचियाँ निम्न प्रकार की है – सामाजिक रुचियाँ, व्यावसायिक रुचियाँ, वैज्ञानिक रुचियाँ, साहित्यिक रुचियाँ, संगीत सम्बन्धी रुचिया, कलात्मक रुचियाँ, व्यापारिक रूचियाँ, गणित-सम्बन्धी रचिया, लिपिक रुचियाँ आदि।
रुचि और ध्यान में सम्बन्ध– रूचि और ध्यान का आपस में गहरा सम्बन्ध है। मैक्डूगल ने कहा ही है कि । रुचि में गुप्त ध्यान है और ध्यान सक्रिय रुचि है। रुचि एक मानसिक संरचना है तथा ध्यान एक मानसिक प्रक्रिया है। रुचि और ध्यान का यह घनिष्ठ सम्बन्ध निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-
(a) ध्यान रुचि पर आधारित है – ध्यान को रुचि पर आधारित माना गया है। व्यक्ति उन वस्तुओं की ओर अपना ध्यान आकर्षित करता है जिनमें उसकी रुचि होती है। जैसे – यदि किसी व्यक्ति की रूचि कविताओं में है तो वह कविताएँ पढ़ने और सुनने की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित करेगा। रुचि के अभाव में ध्यान नहीं हो सकता ।
(b) रुचि ध्यान पर आधारित है – कुछ मनोवैज्ञानिक इस बात, पर बल देते हैं कि रुचि ध्यान पर आधारित है। किन्तु वस्तु पर व्यक्ति तक अपना ध्यान केन्द्रित नहीं करता, तब तक उस वस्तु में उसकी रुचि असंभव है। जैसे, यदि कोई बालक गणित पढ़ने में रुचि पैदा होने लगेगी। अतः ध्यान के बिना रुचि नहीं हो सकती।
(c) दोनों एक दूसरे पर आधारित – कुछ मनोवैज्ञानिकों ने दोनों को, अर्थात् ध्यान और रुचि को एक दूसरे पर आधारित माना है। ध्यान और रुचि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। यह नहीं कहा जा सकता कि ध्यान और रुचि में से किसका महत्व अधिक है। यदि रुचि के कारण कोई व्यक्ति किसी वस्तु की ओर ध्यान केन्द्रित करता है तो ध्यान के कारण किसी वस्तु में उसकी रुचि उत्पन्न होगी।
रुचि को प्रभावित करने वाले कारक– रुचि विभिन्न कारकों द्वारा प्रभावित होती है।इन कारकों का वर्णन निम्न दिया गया है
1 बुद्धि – बुद्धि और रुचि का सह-सम्बन्ध भी पाया गया है। तीव्र बद्धि वाले बच्चे उन कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं जिनमें तर्क की अधिक आवश्यकता होती है तथा जिसमें -अधिक चिंतन करना पड़ता है। मंद बुद्धि वाले बालक ऐसा करने के योग्य नहीं होते। बुद्धि का स्तर रुचि को प्रभावित करता है। उच्च बुद्धि वाले व्यक्ति कठिन कार्य को करने में आनन्द का अनुभव करते हैं। आम कार्यों से उन्हें असंतोष होता है तथा वे उसे त्यागना कहते हैं। लेविस और मैथी ने श्रेष्ठ बुद्धि वाले और मंदबुद्धि वाले बालकों को रचियों
का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि श्रेष्ठ बुद्धि वाले बालकों को रुचियों में अधिक विविधता थी। उनमें पढ़ने की रुचि अत्यधिक थी। श्रेष्ठ बुद्धि वाले बच्चों में जानवरों की कहानियों में अधिक रुचि पाई गई।
2 आयु तथा लिंग – रुचियों के विकास के बारे में अधिकतर अध्ययनों में लिंग सम्बन्धी अन्तरों और आयु का प्रभाव स्पष्ट रूप से सामने आया है। लड़कियों में शारीरिक परिपक्वता लड़का से अपेक्षाकृत पहले आती है। इसके कारण लड़कियाँ सामाजिक गतिविधियाँ में अधिक रुचि का प्रदर्शन करती है तथा शारीरिक कार्य को पसंद नहीं करती। सांस्कृतिक कारक भी योगदान करते हैं। अधिकतर संस्कृतियों में लड़कियों से अधिक से अधिक सामाजिक होने की अपेक्षा की जाती है तथा सड़कों में शारीरिक रूप से सुदुढ़ |
5 से 7 वर्ष की आयु के बच्चे रेत से खेलना पंसद करते हैं तथा कल्पित कार्यों में भाग लेते हैं। उनके रुचियों में परिवर्तन होने लगता है। इस आयु में वे लिंग के प्रति सचेत हो जाते हैं। लड़कियाँ परियों और पशुओं की कहानियाँ में रुचि लेती है तथा लड़के वीरता तथा विज्ञान सम्बन्धी कहानियों में। 15 वर्ष की आयु तक लड़कियाँ घर पर ही खेलना पसंद करती है और लड़के घर के बाहर।
3 शारीरिक विकास – शारीरिक विकास भी इन रुचियों को प्रभावित करता है । स्वस्थ बच्चे गति भरे खेलों को पसंद करते हैं जैसे क्रिकेट, फुटबाल, हॉकी आदि तथा अस्वस्थ या कमजोर बालक गति के बिना खेलों को खेलना पसंद करते हैं। शारीरिक विकास और रुचियों का सम्बन्ध शैशवावस्था तथा प्रौढावस्था में अधिक स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। बच्चा खिलौनों से भी खेलना शुरू करता है तब उसे मांसपेशियों के साथ सामंजस्य विकसित को जाता है।
4 सामाजिक–आर्थिक स्तर – परिवार का सामाजिक और आर्थिक स्तर भी रुचियों को प्रभावित करता है। परिवार का आर्थिक स्तर उच्च होने से है जो उसको रुचियों के विकास में सहायक होती है।
बच्चों में रुचि करना या रुचियों का शैक्षिक महत्त्व – प्रभावशाली शिक्षण के लिए बच्चों या विद्यार्थियों में रुचियों का विकास करना अति आवश्यक है। इससे कक्षा –कक्षा की कई शैक्षिक समस्याओं का हल स्वयं ही मिल जाएगा। बच्चों मया विद्यार्थियों में रुचिया उत्पन्न करने में या इन उपयुक्त स्वरूप प्रदान करने में अध्यापक को या स्कूल की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्न सुझावों का माता-पिता, अध्यापक और अन्य लोगों द्वारा अनुकरण किया जा सकता है।
(1) उचित शिक्षण विधियों का चयन – शिक्षण कार्य तथा अधिगमका रुचिकर बनाने के लिए उचित शिक्षण विधियों का चयन अति आवश्यक होता है। शिक्षण कार्य शुरू करने से पहले उचित शिक्षण विधियों का चयन कर लेना चाहिए। ये शिक्षण विधियाँ बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप होनी चाहिए। सभी शिक्षण विधियाँ सभी विषयों के लिए उपयुक्त नहीं होती। अतः विषय की प्रकृति और बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर ही शिक्षण विधियों का चयन किया जाना चाहिए।
सहायक सामग्री का प्रयोग – कक्षा में शिक्षण कार्य को रुचिकर बनाने के लिए। तथा सीखने की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित एवं आकर्षक सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे-मॉडल. चार्ट, नक्शे, टी-वी.. फिल्में इत्यादि ।
अध्यापक का व्यक्तित्त्व – किसी व्यक्ति में रुचि उत्पन्न करने के लिए स्वयं अध्यापक का अपना व्यक्तित्व भी महत्वपूर्ण सघन सिद्ध होता है । उसका कक्षा में विद्यार्थियों के साथ व्यवहार संचकर होना चाहिए। कक्षा में अध्यापक पूरी तैयारी के साथ प्रवेश करें। तथा उसकी आवाज स्पष्ट एवं प्रभावशाली होनी चाहिए। विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण भी प्रभावशाली हो। अध्यापक को चुस्त तथा परिश्रमी होना चाहिए। अध्यापक को हंसी-मजाक करना भी आना चाहिए। विद्यार्थियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, प्रेमपूर्ण तथा लोकतांत्रिक व्यहार करना चाहिए। अध्यापक को अपना पाठ दैनिक जीवन के साथ सम्बद्ध करना चाहिए।
समय–सारिणी – कक्षा-कक्ष में शिक्षण के दौरान कई प्रकार के कारण अधिगम प्रक्रिया को खराब करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। उनमें थकान का कारण प्रमुख होता है। थकान के कारण विद्यार्थी का ध्यान केन्द्रित नहीं रहता। इस प्रकार इन कारकों के प्रभाव को न्यूनतम करने के लिए अध्यापक स्कूल में समय-सारिणी का प्रयोग करता है। समय-सारिणी में स्कूल समय को विभिन्न कालांशों में बाँटा जाता है तथा प्रत्येक कालांश में पढ़ाये जाने वाले विषय निर्धारित कर दिए जाते हैं। इस समय विभाजन और विषय को
निर्धारित करते समय बछो की शारीरिक अवस्था ,आयु तथा औसतआदि को ध्यान मेअवश्य रखना चाहिए | एक ही विषय की कलशों मे बील्कुल नहीं पढाया जाना चाहिए |इस प्रकर सरल तथा कठिन विषय और पाठो का समय विभाजन एक-दूसरे के बाद लाया जाना चाहिए | इससे विद्यार्थियों को मानसिक कल को कम किया जाए। समय -सारिणी में विद्यार्थियों के लिए खाली पीरियड की व्यवस्था भी होनी चाहिए।
अधिगम–अनुभवों में उचित चयन – कक्षा –कक्षा मे जिस विषय-वस्तु को अध्यापक प्रस्तुत करने के लिए चुनाता हैं, वह सुव्यवस्थित होनी चाहिए। तभी विद्याथी उसमे रूचि –का प्रदर्शन करेंगे। अंत: अधायपक को चाहिए कि वह भी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखे तथा पढ़ाये जाने वाले पाठ भी विषय-वस्तु का चयन करें तथा उसे ठीक ढंग से प्रस्तुत करे |
रूचि मापन – निम्नलिखित विधियों से रुचियों की पहचान और मापन किया जाता है।
1 . अवलोकन
2 . परामर्श लेने वाले को अभिव्यक्ति
3 . परीक्षणों द्वरा मापन
1अवलोकन – अवलोकन एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति की रुचियों का अनुमान लगाया जा सकता है। व्यक्मि-अध्ययन के विषय में कुछ विधियों का प्रयोग किया जाता । उनके द्वरा ही व्यक्ति की रुचियों तथा अन्य विशेषताओ का पता लगाया जाता है | विधियों में व्यक्तियों के इतिहास, आत्म-कथा आकस्मिक निरीक्षण अभिलेख, माता – पिता का मत सचित अभिलेख पर समाहित है। इस प्रकार छोटे बच्चों का रु चियों का अवलोकन उनकी क्रियाओं तथा व्यवहार से किया जाता है। खेल रूचि , स्वाध्याय रूचि , टीवी, सिनेमा में रुचियों का पता बच्चों के व्यवहार से लगाया जा सकता है |
2 परामर्श लेने वाला भी पूछने पर अपनी रुचियों की अभिव्यक्ति कर सकता हैं
3 रूचि परिसुची के मध्यम से भी रुचियो का पता लगया जा सकता है
कुछ रूचि तालिकाओ की व्याख्या – निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण रूचि परिसुचिया इस प्रकार है –
स्ट्रांग की व्यावसायिक थि परिसूची – स्टेन फोर्ड विश्वविद्यालय में स्ट्रांग ने व्यावसायिक रूचि परिसूची का निर्माणमा प्रमाणीकरण किया। इसके द्वारा व्यक्ति की रुचियों तथा विरकियों का पता लगाया जा सकता है। इस परिसूची में 400 पर है और यह परुष तथा महिला के लिए पुथक -पृथक फार्म में उपलव्य है। ये पद विभिन्न व्यवसायों, मनोरंजनक्रियाओ , विद्यालय, विषय एवं व्यक्तिगत विशेषताओं से सम्बन्धित है। यह परिसूची 40 व्यवसायों को अंकित करती है। यह परिसूची 14 वर्ष के लड़कों के लिए अति उतम है। इसके आधार पर स्ट्रांग ने पता लगाया कि इनमें से किसी भी व्यवसाय में कार्य करने वाले व्यक्तियों को रुचिर्या अन्य व्यक्तियों की रुचियों से पुथक होती है। जब कोई व्यक्ति परिसूची भर लेता है तो उसका विश्लेषण किया जाता है एवं फलांकन निकाला जाता है। फिर ज्ञात कर लिया जाता है कि उसकी रुचियां उन व्यक्तियों के समकक्ष हैं या नहीं, जो उस व्यवसाय में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं। इस प्रकार यह परिसूची योग्यता का मापन ही नहीं करती अपितु तुलनात्मक अध्ययन भी करती हैं।
2.कुदडर का अधिमान लेखा – या लेखा 10 प्रकार की क्रियाओं के बारे में वरीयाताओं का मापन करता है। यह 504 पदों का बना हुआ है। यह पद तीन-तीन समूहों में विभक्त किए गए हैं। व्यक्ति से पूछा जाता है कि वह किस पर को सबसे अधिक पसन्द करता है और किसको सबसे कम चाहता है। कुड्डर ने 10 प्रकार के क्षेत्र है। इस प्रकार से हैं
बाहा क्षेत्र की क्रियाएँ
- यांत्रिक
- गणनात्मक
- वैज्ञानिक
- अनुनयात्मक
- कलात्मक
- साहित्यिक
- संगीतात्मक
- समाज-सेवा
- लिपिक
- थर्स्टन का व्यवसाय रुचि कार्यक्रम – थर्स्टन ने 80 व्यवसायों के लिए एक व्यवसाय रुचि प्रोग्राम बनाया जिसे 3400 कॉलेज विद्यार्थियों ने इस प्रकार भरा पसन्द (L) उदासीन (I ) या ना पसन्द (D) के चिह लगाकर रुचि को प्रकट किया गया। यह कार्यक्रम समय तथा थन की बचत करता है तथा व्यक्तियों को आया-विश्लेषण के लिए प्रेरित करता है।
4.आर .पी.सिंह का रुचि अभिलेख–पत्र – यह स्यमान का ररूचि अभिलेखन पत्र 7 क्षेत्रों में रुचि को मापता है। इसमें 168 पद है तो कि 7 भागों में विभक्त है।7 क्षेत्र इस प्रकार से है
- यांत्रिक
- व्यापार
- वैज्ञानिक
- सामाजिक
- लिपिक
- सौन्दर्यात्मक
- बाह्य क्षेत्र क्रियाएँ
निम्नलिखित कुछ अन्य रूचि मापन के परीक्षणों के नाम हेपनर की व्यावसायिक संच-लब्धि क्लीटन को व्यावसायिक रुचि तालिका स्टीवार्ड एवं ब्रेनाई की विशिष्ट रुचि तालिका
भारत में रुचि परिसूचियाँ – भारत में रुचि मापने का कार्य 1946 में प्रारम्भ हुआ जब इलहाबाद ब्यूरो ने कुड्डर रुविपत्र के आधार पर एक व्यवसायिक रुचिपा का निर्माण हिन्दी में किया। इसी वर्ष की बिहार शैक्षक एवं व्यावसायिक निर्देशन ब्यूरो कुडडर रूचिपत्र का भारतीयकरण किया। सन् 1957 में बर्नन .रे. के चौधरी रूचि -सर्वेक्षण का निर्माण किया। 1960 में पटना के चटर्जी ने “चटर्जी अभाषिक प्राथमिकता प्रपत्र का प्रमागीकरण किया।
1962 में आगरा के डॉ. पाण्डे ने किशोरी रुचि मापन हेतु एक रुचि परिक्षण बनाया। 1973 महेश भार्गव ने व्यावसायिक प्राथमिकता मापक तैयार किया।
अब रुचि परीक्षणों के नाम इस प्रकार
1. पी.एस.एम. रुचि-परिसूची
2 . झिंगरन ओझा रूचि परिसूची
3 .भारद्वाज का रुचि अभिलेखा पत्र
4 . कुलक्षेष्ट का शैक्षीक एवं व्यावसायिक रूचि अभिलेख पत्र
निर्देशन में रुचि मापन का उपयोग – निर्देशन एवं परामर्श प्रक्रियाओं में रुचि एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। निर्देशन में रुचि दो कार्य में की जा सकती है
1 व्यक्ति की रुचि तथा उसकी योग्यताओं में सह-संबंध जाने बिना निर्देशन का कार्य अधूरा है। व्यक्ति को रूचि तथा योग्यता में कोई संबंध हो तो रवि को विकसित कर्स का प्रयत्न करना चाहिए।
2 बहुत से व्यवसाय संवधी सह-संबंध रखते है। इसका विचार कर व्यक्तियों को उनकी रचि की मात्रा के अनुसार मा निर्देशित करना चाहिए।
3 शिक्षा निदेशार में भी रुचि मापन या महत्व कम नहीं। अध्यापक के लिए यह आवश्यक है कि वह छात्रो की रुचियों को ध्यान में रखें।
4 रूचि छात्रो को अध्ययन में प्रेरणा देती है। अध्यापक में गठित रुचियाँ
रुचि परिसुचियों का लाभ:
विद्याधियों के लिए – विद्यार्थी रचि परिसूधियों के माध्यम से अपनी रुचियों को जानकारी लेकर उनका विश्लेषण कर सकते हैं। विद्यार्थी अपने व्यवसाय चमन का निर्णय अपनी रुचि के अनुसार कर सकता है।
अध्यापकों तथा परामर्शदाताओं के लिए – रुचि परिसुचियो के द्वारा छात्रो की रुचियों का पता लगाकर अध्यापक उनका व्यावसायिक मार्गदर्शन कर सकते है। परामर्शदाता की समस्याओं को भी हल करने में सहायता प्रदान कर सकता है।
नियोक्ताओं के लिए – काम तथा रोजगार देने वालों के लिए रुचि परिसूचियाँ लाभादायक सिद्ध होती है | इनकी सहायता से नौकरी के लिए आए व्यक्तियों का चुनाव कर सकते हैं।
रूचि परिसुचियों के दोष:
1 माध्यमिक स्तर पर छात्रो की रुचियाँ स्थाई नहाँ होती है और इस प्रकार उनके भावी व्यवसाय का चयन करने में असफलता रहती है।
2 विभिन्न विद्यालयों तथा अणियों के आगे की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती है।
3 कई बार विद्यार्थी स्कुल स्तर पर किसी कार्य में रुचि प्रकट न करें, परंतु जब बाद में वही काम करना पड़े तो रुचि लेने लग जाए । रुचि परिसुचिया इस बात का पता नहीं देती।
4 कई बार विद्यार्थियों की रुचि केवल उन कार्यों तक सीमित रहती है जिनका उन कुछ पता होता है। माध्यमिक स्तर पर जा का अनुभव सीमित होता है। इसलिए उनकी रूचिया इस बात का पता नहीं दे सकती कि ये भावी जीवन में कोन सा व्यवसाय अपनाय्येगे