हुमायुँ का जीवन परिचय

प्रारंभिक जीवन –

हुमायूँ, जिसका जन्म 6 मार्च 1508 ई. को काबुल के किले में हुआ था, एक महानायक और मुग़ल साम्राज्य के प्रमुख शासक थे।

उनका मूल नाम नसीरुद्दीन मुहम्मद (Nasir ud-Din Muhammad) था,और हुमायूँ का अर्थ “भाग्यशाली” होता है।

हुमायूँ को 12 वर्ष की आयु में बदख्शा का सूबेदार बनाया गया, जो एक महत्वपूर्ण पद था।

उनकी 18 वर्ष की उम्र में पहली लड़ाई हुई, जिसमें हामिद खान को पराजित हो गया।

उनके पिता बाबर ने अपनी वसीयत में निर्धारित किया था कि उनका साम्राज्य उनके पुत्रों में बाँटा जाएगा और हुमायूँ को उत्तराधिकारी घोषित किया गया था। बाबर ने हुमायूँ से कहा था कि यदि उनके भाई गलती करें तो वह उन्हें माफ कर दें।

पानीपत की पहली लड़ाई के बाद, बाबर ने हुमायूँ को हिसार, फिरोजा बाद, और बाद में संभल की जागीर दी।

खानवा युद्ध के बाद, दो वर्षों के लिए हुमायूँ को बादशाह का प्रशासक नियुक्त किया गया।

वैवाहिक जीवन

हुमायूँ का  29 अगस्त 1541 ई. को हिन्दाल के गुरु मीर अली अकबर जामी की पुत्री हमीदा बानू से विवाह हुआ ।
1542 ई. में अमरकोट के किले में उनका पुत्र अकबर का जन्म हुआ, जहां वीरसाल नामक शासक शासन कर रहे थे।

राज्याभिषेक

हुमायूँ ने 29 दिसंबर 1530 ई. को अपनी 22 वर्ष की उम्र में बादशाही की गद्दी संभाली।

हुमायूँ को साम्राज्य की विरासत में मिला, जो उसके लिए काँटों का ताज बन गया ।

इसका कारण था कि उनके पिता बाबर का जीवन संघर्षों और युद्धों में ही बित गया था। बाबर एक उत्कृष्ट सेनानायक और योद्धा थे, लेकिन उन्हें अच्छा प्रशासक नहीं बन पाए ।

इसलिए, जो राज्य हुमायूँ को संभालना पड़ा, वह पूरी तरह से बिखरा हुआ ही रहता  था।

चौसा का युद्ध (25 जून 1539.)

यह एक क्षेत्र है जो गंगा और कर्मनाशा नदी के बीच स्थित है, जहां हुमायूँ और शेरशाह के बीच एक युद्ध हुआ था ।

इस युद्ध के बाद, शेरखां ने शेरशाह की उपाधि ले ली । इस युद्ध में हुमायूँ की हार गया । उसके बाद, निजाम भिश्ती ने हुमायूँ की जान बचाई।

बाद में, हुमायूँ ने इसे कुछ समय के लिए यानि आधे दिन या एक दिन के लिए  राजा बना दिया था |

जौहर आफ़तावची के अनुसार दो घंटे के लिए और गुलबदन बेगम के अनुसार दो दिन के लिए भिश्ती को राजा बनाया था।

कन्नौज/बिलग्राम की लड़ाई (17 मई 1540) व निर्वासित जीवन

इस युद्ध में हुमायूँ हार गया और निर्वासित हो गया। कन्नौज के लड़ाई में हारने के बाद, वह क्रमशः आगरा, दिल्ली और सिंध गया।

बाद में, बैरम खां की सलाह पर वह ईरान के शाह तहमास्प के दरबार में पहुँचा।

यहाँ पर उसने शिया धर्म को स्वीकार कर लिया। हुमायूँ ने तहमास्प से संधि की कि वह कांधार विजय करके उसे दे देगा।

1545 ई. में उसने कांधार जीतकर शाह को सौंप दिया। आगे, शाह ने काबुल और गजनी को जीतने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई तब हुमायूँ ने कांधार को पुनः अपने नियंत्रण में लिया।

इसके बाद, उसने काबुल जीता। इसी समय, हुमायूँ की तरफ से युद्ध करते हुए हिन्दाल मारा गया।

हुमायूँ की पुनर्वापसी (1555)

1555 ईसवी  में, प्रमुख सेनापति और प्रधानमंत्री बैरम खां की सलाह पर हुमायूँ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया पुनः वापसी का ।

पंजाब के शासक सिकंदर सूर के सेनापति तातार खां को हरा कर रोहतास का किला को अपना बनाया । इसके बाद, 15 मई 1555 को, मच्छीवाडा युद्ध में उन्होंने एक महत्वपूर्ण जीत हासिल की।

फिर, 22 जून 1555 को, सरहिंद युद्ध में हुमायूँ ने पंजाब के शासक सिकंदर सूर को पराजित किया

उसी वक्त हुमायूँ ने अकबर को युवराज घोषित करके पंजाब का सूबेदार बना दिया और फिर, 23 जुलाई 1555 को, हुमायूँ ने दिल्ली में प्रवेश किया।

दिल्ली की जीत के बाद, अकबर को लाहौर का भी सूबेदार नियुक्त कर दिया । इसके बाद, उन्होंने आगरा पर भी अपना अधिकार स्थापित किया।

मृत्यु

1556 ईसवी में, जनवरी के महीने में, दीनपनाह नगर में स्थित पुस्तकालय (शेरमण्डल) के सीढ़ियों से गिरकर हुमायूँ की मृत्यु हो गई।

हुमायूँ की मृत्यु की खबर को कुछ दिनों  तक गुप्त रखा गया। मुल्ला बेकसी (हुमायूँ का हमशक्ल) द्वारा जनता को दर्शया गया |

हुमायूँ के मकबरे का निर्माण उनकी पत्नी हाजी बेगम ने दिल्ली में कराया। इस मकबरे को एक वफादार बीबी की महबूबाना पेशकश के रूप में मान्यता प्राप्त है।

हुमायूँ के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य –

* 1531 ईसवी में, हुमायूँ ने अपने पहले अभियान में कालिंजर के चंदेल शासक प्रताप रुद्रदेव को हरा दिया।

* 1533 ईसवी में, दीनपनाह नगर की स्थापना की गई।

* हुमायूँनामा का रचनाकार गुलबदन बेगम रहीं। हुमायूँ ज्योतिष पर विश्वास रखते थे और सप्ताह के सात दिनों में अलगअलग रंगों के कपड़े पहनते थे।

* हुमायूँ एकमात्र मुग़ल शासक थे जो भाइयों के बीच साम्राज्य का बंटवारा करना चाहते थे।

* हुमायूँ के तीन भाइयों के नाम थे:कामरान, अस्करी, हिन्दाल।

* हुमायूँ ने शेरखां को दौराहा में पराजित किया। शेरखां ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार की और अपने पुत्र क़ुतुब खां को हुमायूँ के पास जमानत के रूप में छोड़ दिया।

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